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करने के लिये बताई गई हैं। आचारांगसूत्र व प्रश्नव्याकरणसूत्र में भी इन भावनाओं का वर्णन प्राप्त होता है।' १. विविक्तवाससमिति भावना--जो विचारपूर्वक ही अवग्रह की
याचना करता है। २. अनुज्ञातसंस्तारक ग्रहण रूप अवग्रहसमिति भावना-गुरुजनों की
आज्ञा लेकर आहार-पानी करना चाहिये अर्थात् प्रत्येक वस्तु
ग्रहण करते समय गुरु की आज्ञा लेनी चाहिये । ३. शय्यासंस्तारक परिकर्मवर्जनारूप शय्यासमिति भावना--निर्ग्रन्थ
साधु क्षेत्र व काल की मर्यादा को ध्यान में रखकर वस्तु ग्रहण
करने वाला होना चाहिये । ४. अनुज्ञात भक्तादि भोजन लक्षणा साधारण पिण्डपात लाभ समिति
भावना -आवास व शय्या के साथ ही भोजन की भी जरूरत होती है, उसे निश्चित मात्रा में ग्रहण करना चाहिये । बारबार आज्ञा लेने वाला होना चाहिये। इस तरह साधु अपनी आवश्यकतानुसार कल्पनीय वस्तु को ग्रहण करें। जितनी बार वस्तु की आवश्यकता हो उतनी बार गुरु की आज्ञा लेकर विवेक
पूर्वक विचार कर ग्रहण करें। ५. सार्मिक विनयकरण भावना--समान धर्म व आचरण वाले की
वस्तु लेने पर, उस सार्मिक की ( यानि जिससे वस्तु ली है) आज्ञा लेना चाहिये।
४. ब्रह्मचर्य -तीन करण तीन योग से मैथुन का सर्वथा त्याग करना ब्रह्मचर्य है। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि देव, मनुष्य, तिर्यञ्च संबंधी सर्व प्रकार के मैथुन का तीन करण, तीन योग से त्याग ब्रह्मचर्य है। सूत्रकृतांगसूत्रवृत्ति में सत्य, भूतदया, इन्द्रिय-निरोधरूप ब्रह्म की चर्या-अनुष्ठान, ब्रह्मचर्य कहा है। इस प्रकार जैनदर्शन में ब्रह्मचर्य को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। इसी से व्यक्ति १ (क) आचारांगसूत्र -मुनि आत्माराम पृ० १४३७-३९
(ख) प्रश्नव्याकरणसूत्र-संवरद्वार, अध्ययन ८ २. आचारांगसूत्र-मुनि आत्माराम, पृ० १४४४ ३. शास्त्री, देवमुनि-जैन आचार, सिद्धान्त और स्वरूप, पृ० ८३१
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