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________________ ( ३६ ) १. अनुवीचिभाषण भावना-हित-अहित का ध्यान रखे बिना बोलना। इसमें झूठ के आजाने का संशय रहता है। २. क्रोधप्रत्याख्यान भावना-क्रोध में व्यक्ति विवेकशून्य हो जाता है और इस समय असत्य भाषण की सम्भावना रहती है। अतः क्रोध का त्याग करके बोलना चाहिए। ३. लोभप्रत्याख्यान भावना-लोभ का त्याग करना जरूरी है क्योंकि लोभ के वशीभूत होकर व्यक्ति असत्य भाषण कर सकता है। ४. भयप्रत्याख्यान भावना-भय से युक्त व्यक्ति अपने बचाव के लिए झूठ बोल देता है, अतः मुनि को पूर्णतः भयमुक्त रहना चाहिए। ५. हास्यप्रत्याख्यान भावना-हास्यवश साधु असत्यभाषण कर सकता है, अतः मुनि हँसी-मजाक का त्याग करें। हँसी-मजाक से जीवन की गम्भीरता में कमी तो आती ही है, सभ्य लोगों की दृष्टि से वह तुच्छ सा लगता है। ३. अचौर्य-मुनि को गृहस्थ की आज्ञा के बिना कोई भी वस्तु ग्रहण नहीं करनी चाहिए। आचारांगसूत्र में कहा गया है-"कोई भी पदार्थ चाहे वह ग्राम में, नगर में, अरण्य में, अटवी में पड़ा हो, वह स्वल्प हो, बहुत हो, स्थूल हो, सचित्त अथवा अचित्त हो; मन, वचन, काय से न ग्रहण करना, न दूसरों से करवाना, न करते हुए का अनुमोदन करना अचौर्यमहाव्रत कहलाता है। दशवैकालिकसूत्र में भी यही स्वरूप वर्णित है।२ ___चोरी व्यक्ति को पतन की राह पर ले जाती है। साधना में रत व्यक्ति ऐसे कार्य करने से संकल्प-विकल्पों में उलझकर अपनी शांति खो देता है । अतः अचौर्य महाव्रती साधक को कभी भी अदत्त ग्रहण नहीं करना चाहिए । अदत्तादान महाव्रत की पाँच भावनाएँ इसे पुष्ट १. आचारांगसूत्र-मुनि आत्माराम पृ० १४३५-३६ २. दशवैकालिकसूत्र ६:१४-१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525005
Book TitleSramana 1991 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1991
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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