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( ३५ ) अर्थ चलते-फिरते समय अज्ञान व असावधानीवश किसी जीवन की विराधना न हो, किया गया है । वचन समिति के अनुसार बोलते समय ऐसे वचनों का प्रयोग नहीं करें जो दूसरों को कष्ट उत्पन्न करे । मनः भावना का अर्थ मन में विभिन्न प्रकार के विध्वंसात्मक विचारों को स्थान नहीं देना है । एषणा समिति से शरीर को धर्म- ध्यान के हेतु चलाने के लिए निर्दोष आहार की प्राप्ति माना है । निक्षेपणा का बोध दैनिक जीवन के कार्यकलापों को चलाने के लिए जो आवश्यक उपकरणादि रखे जाते हैं, उन पर ममत्व नहीं रखते हुए उसका सावधानीपूर्वक उपयोग करना होता है। इन पाँच भावनाओं से श्रमण को अहिंसाणुव्रत - पालन करने में संबल मिलता है ।
२. सत्य - श्रमण द्वारा असत्य का पूर्ण रूप से त्याग करना सत्य महाव्रत कहलाता है । इसमें असत्य का मन, वचन, काय द्वारा, कृत कारित, अनुमोदित आदि नौ प्रकार से त्याग किया जाता है । उत्तराध्ययनटीका में कहा गया है कि जिस शब्द के प्रयोग से जनजन का हित होता हो, वह सत्य है ।" दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि जो भाषा सत्य है, किन्तु अप्रिय या अहितकारी है, वह भाषा सत्यासत्य मृषा - मिश्र है व जो भाषा मृषा है, इनको बोलना योग्य नहीं है । आचारांगसूत्र में तो यहाँ तक कहा है कि साधु हँसी-मजाक का भी परित्याग करें, वह अपने अन्दर में ऐसे संस्कार जागृत करे जिससे उसकी वाणी पूर्ण संयत, निर्दोष एवं यथार्थ हो ।
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सत्य की नींव मजबूत करने के लिए जैनाचार्यों ने पाँच भावनाओं का उल्लेख किया है । आचारांगसूत्र, समवायांगसूत्र एवं प्रश्नव्याकरणसूत्र में पाँच-पाँच भावनाओं का वर्णन है । आचारांग में निम्न पाँच भावनाएँ बताई गई हैं : ४
१. 'सदभ्यो हित सत्यम्' - उत्तराध्ययनटीका - आचार्य शान्तिसूरि २. 'जाय सच्चा अवत्तव्वा. सच्चामोसा य जा मुसा
जाय बुद्धिहि नाइन्ना, न तं भासिज्जा पन्नवं '
३. आचारांगसूत्र - मुनि आत्माराम, पृ० १४२८-२९ ४. वही, पृ० १४३०-३१
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- दशवैकालिकसूत्र ७।२
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