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________________ ( ३४ ) मुनि साधना : जैन धर्म में मुनि साधना का सामान्य अर्थ साधु या श्रमण के आचार से है। श्रमण-आचार शब्द आते ही सर्वप्रथम हमारा ध्यान पाँच मूल व्रतों की ओर आकृष्ट हो जाता है। जैन साधना पद्धति में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह, ये पाँच मूल व्रत माने गये हैं, जिन्हें सम्पूर्ण रूप से अर्थात् मन, वचन, काय व कृत कारित एवं अनुमोदित इन नौ कोटियों सहित पालन करने को महाव्रत संज्ञा दी गई है। इसके अतिरिक्त पाँच समिति, तीन गुप्ति, बाइस परिषह, दस समाचारी, बावन अनाचार त्याग आदि भी श्रमण साधना के अनिवार्य अंग हैं। इन सभी का हम इस शोध-लेख में क्रमानुसार वर्णन कर रहे हैं : पाँच महाव्रत : श्रमणों को मुख्य रूप से आचार की नींव के रूप में अहिंसादि पाँच महावतों का पालन करना होता है, जिनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है : १. अहिंसा-साधु सर्व प्रकार की, त्रस व स्थावर जीवों की, हिंसा का त्याग करता है। दशवकालिकसूत्र में कहा गया है कि साधु जन, जग में रहे हुए समस्त प्राणियों की जानबूझ कर एवं अनजान में मन, वचन, काय द्वारा न हिंसा करें, न करवायें और न करते हुए की अनुमोदना ही करें।' व्रतों की सुदृढ़ता के लिए आचारांगसूत्र में त्रस और स्थावर, सूक्ष्म एवं स्थूल जीवों की तीन करण, तीन योग से हिंसा न करने को अहिंसा महाव्रत कहकर इसकी पाँच भावनाएँ बतलाई हैं, वे क्रमशः ईर्या समिति, वचन समिति, मन समिति, एषणा समिति व निक्षेपणा समिति के रूप में हैं । * ईर्या समिति का १. 'जावंति लोए पाणा, तसा अदुव थावरा ते जाणमजाणं वा, नहणे णा विधायए" --दशवैकालिकसूत्र ६।१० २: पढमं भंते । महत्वयं पच्चक्खामि सव्वं पाणाइवायं से सुहम वा बायर वा तसं वा थावरं वा नेव सयं पाणाइवायं करिज्जा ३ जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणसा वयसा कायसा तस्स भंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि' -आचारांगसूत्र-मुनि आत्माराम पृ० १४१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525005
Book TitleSramana 1991 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1991
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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