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( २४ ) जाने के उल्लेख श्वेताम्बर जैन आगम साहित्य एवं दिगम्बर जैन पुराणसाहित्य में उपलब्ध होते हैं। सूर्याभदेव के द्वारा भगवान् महावीर के सम्मुख नृत्य एवं नाटक किये जाने का उल्लेख हमें राजप्रश्नीय में उपलब्ध होता है । वस्तुतः देवता तोर्थंकरों के सम्मुख नाटक करते हैं यह बात नाटक को धार्मिक जीवन का एक अंग बनाने की दृष्टि से ही प्रचलित हुई होगी क्योंकि इसी आधार पर कहा जा सकता है कि देवता जब तीर्थंकरों के सम्मुख नृत्य-नाटक आदि कर सकते हैं तो गृहस्थजनों को भी जिनप्रतिमा के सम्मुख नृत्य, नाटक आदि करके अपना भक्तिभाव प्रदर्शित करना चाहिए । जैन परम्परा में धार्मिक जीवन के अंग के रूप में नृत्य एवं नाटक की परम्परा के मुख्य तीन उद्देश्य थे-१-तीर्थंकरों के प्रति अपनी भक्तिभावना का प्रदर्शन करना । २-ऐसे रुचिकर कार्यक्रमों के . द्वारा लोगों को धार्मिक क्रियाकलापों में आकर्षित करना और ३उन्हें वैराग्य की दिशा में प्रेरित करना। इस आधार पर जैन नाटकों का भक्ति और वैराग्य प्रधान रूप विकसित हुआ। हमें ऐसे भी संकेत मिलते हैं कि इस प्रकार के नाटक पर्याप्त प्राचीनकाल से ही जैन परम्परा में मंचित भी किये जाते थे।
जैन पुराणों के आधार पर यह बात स्पष्ट रूप से सिद्ध होतो है कि तीर्थंकर अपने व्यावहारिक जीवन में नत्य आदि देवते थे। यद्यपि पुराणों में तीर्थंकरों के द्वारा अपने गृहस्थ जीवन में नृत्य आदि में भाग लेने के उल्लेख मिलते हैं किन्तु इससे हम नृत्य एवं नाटक को धार्मिक साधना का एक अंग नहीं कह सकते हैं । वस्तुतः नृत्य एवं नाटक जैनों के धार्मिक जीवन का अंग तभी बने जब जैनधर्म अपने निवृत्तिमूलक तपस्या प्रधान स्वरूप को छोड़कर भक्तिप्रधान धर्ममार्ग के रूप में विकसित हुआ। जैन कर्मकाण्डों के साथ ‘नृत्य नाटक का सम्बन्ध जिन के प्रति भक्तिभावना के प्रदर्शन के रूप में ही हुआ है। जिनप्रतिमाओं के सम्मुख नृत्य करने को यह परंपरा भी वर्तमान में जीवित है। विशेष रूप से पूजा और आरतो के अवसरों पर भक्त-मण्डली के द्वारा जिनप्रतिमा के सम्मुख नृत्य का प्रदर्शन आज भी किया जाता है। आज भी जिनमन्दिर संगीत, नृत्य और नाट्य कला के प्रदर्शन केन्द्र बने हुए हैं। यद्यपि जैन
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