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सूरि के शिष्य चन्द्रसूरि की रचना है । यह महाराष्ट्री प्राकृत में रचित है तथा इसमें सम्यक्त्व आरोपणविधि एवं व्रत आरोपणविधि, पाण्मासिक सामायिक विधि, श्रावकप्रतिमावाहनविधि, उपधानविधि, प्रकरणविधि, मालाविधि, तपविधि, आराधनाविधि, प्रव्रज्याविधि उपस्थापनाविधि, केशलोचविधि, पंचप्रतिक्रमणविधि, आचार्य उपाध्याय एवं महत्तरा पद-प्रदान विधि, पोषधविधि, ध्वजरोपणविधि, कलशरोपण विधि आदि का उल्लेख मिलता है। इस कृति के पश्चात् तिलकाचार्य का 'समाचारी' नामक कृति भी लगभग इन्हीं विषयों का विवेचन करती है। जैन कर्मकाण्डों का विवेचन करने वाले अन्य ग्रन्थों में सोमसुन्दरसूरि का 'समाचारी शतक' जिनप्रभसूरि (वि० सं० १३६३) की 'विधिमार्गप्रपा', वर्धमानसूरि का 'आचार दिनकर', हर्षभूषणगणि (वि० सं० १४८०) का श्राद्धविधिविनिश्चय' तथा समयसुन्दर का 'समाचारीशतक' भी महत्त्वपूर्ण है। इनके अतिरिक्त प्रतिष्ठाकल्प के नाम से अनेक लेखकों की कृतियाँ हैं-जिनमें भी जैन परंपरा के अनुष्ठानों को चर्चा है। दिगम्बर परंपरा में धार्मिक क्रियाकाण्डों को लेकर वसुनन्दि का 'प्रतिष्ठासारसंग्रह' (वि० सं० ११५०), आशाधर का 'जिनयज्ञकल्प' (सं० १२८५) एवं महाभिषेक, सुमतिसागर का 'दसलाक्षणिकवतोद्यापन', सिंहनन्दी का 'व्रततिथिनिर्णय', जयसागर का 'रविव्रतोद्यापन', ब्रह्मजिनदास का 'जम्बूद्वीपपूजन', 'अनन्तव्रतपूजन', 'मेघमालोद्यापनपूजने' (१५ वीं शती), विश्वसेन का 'षण्वितिक्षेत्रपाल पूजन (१६ वीं शती), विद्याभूषण के 'ऋषिमण्डलपूजन', बृहत्कलिकुण्डपूजन' और 'सिद्धचक्रपूजन' (१७ वीं शती), बुधवीरु के 'धर्मचक्रपूजन' एवं 'बृहधर्मचक्रपूजन' (१६ वीं शती), सकलकीति के 'पंचपरमेष्ठीपूजन', 'षोडशकारणपूजन' एवं 'गणधरवलयपूजन' (१६ वीं शती) श्रीभूषण का 'षोडशसागारव्रतोद्यापन', नागनन्दि का 'प्रतिष्ठाकल्प' आदि प्रमुख कहे जा सकते हैं 11 जैन अनुष्ठानों का दार्शनिक पक्ष__सामान्यतः जैन परंपरा में तपप्रधान अनुष्ठानों का सम्बन्ध कर्ममल को दूरकर मनुष्य के आध्यात्मिक गुणों का विकास और पाशविक आवेगों का नियंत्रण है। जिनभक्ति और जिनपूजा सम्बन्धी
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