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( १०६ ) धम्मपरिक्खा-आचार्य हरिषेण; सं० डा० भागचन्द्र जैन भास्कर;; सम्मति रिसर्च इंस्टीच्यूट आव इण्डोलॉजी ( आलोक प्रकाशन ) न्यू एक्सटेंशन एरिया, सदर, नागपुर; प्र० सं० १९९०, पृ० १२१+१६०+ १६ मूल्य ९५ रु०, डिमाई, सजिल्द ।
दसवीं शताब्दी के आचार्य हरिषेण द्वारा अपभ्रंश में प्रणीत यह व्यंग्य प्रधान काव्य है जिसकी परम्परा धूर्ताख्यान से आचार्य हरिभद्र ने आरम्भ की थी। धम्मपरिक्खा में परपक्ष का खण्डन और स्वपक्ष का मण्डन किया गया है। पौराणिक कथाओं के चामत्कारिक एवं अतिरंजित वर्णनों का युक्तियों द्वारा खण्डन इसका प्रयोजन रहा है ।
यह काव्य ११ सन्धियों (अध्यायों) में विभाजित है। मनोवेग नामक प्रमुख पात्र अपने अभिन्न मित्र पवन वेग को किस प्रकार सन्मार्ग से जोड़ता है और उसे मिथ्यादृष्टियों से मुक्त करता है यही इस ग्रन्थ का मुख्य प्रतिपाद्य है ।
इस संस्करण में प्राचीन प्रतियों के आधार पर मूल का पाठ भेदों के उल्लेख सहित सम्पादन किया गया है। मूल का विस्तार से हिन्दी भावानुवाद भी प्रस्तुत किया गया है। सम्पादक ने अपनी विस्तृत भूमिका में धम्मपरिक्खा शीर्षक १७ ग्रन्थोंका परिचय, हरिषेण नामधारी ७ कवियों का परिचय, ग्रन्थ की साहित्यिक विशिष्टता, दी है जहाँ तक कवि के परिचय का प्रश्न है यह अत्यन्त संक्षिप्त है। इसमें वर्णित कथायें वैदिक परम्परा में भी प्राप्त होती हैं उनका वैदिक परम्परा में क्या स्वरूप है इसका भी परिचय सम्पादक ने दिया है। इस संस्करण में व्याकरणात्मक विश्लेषण भी दिया गया है। इस क्रम में व्यञ्जन-विकार, परिवर्तन, शब्द साधक प्रणाली, रूप साधक प्रणाली, सहित प्रत्ययों का विवेचन है।
ग्रन्थ के अन्त में विशिष्ट शब्दों की सूची भी प्रस्तुत है। इस प्रकार Jainism in Buddhist Literature आदि २५ ग्रन्थों के लेखक डा० भागचन्द्र जैन भास्कर का यह श्रमपूर्वक किया गया स्तरीय प्रयास है। ग्रन्थ की रूप-सज्जा आकर्षक है। छपाई अच्छी है। इस ग्रन्थ को प्रकाश में लाने के लिए डा० जैन बधाई के पात्र हैं।
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