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________________ ( १०४ ) प्रत्येक जैन संस्था और कलाप्रेमी जनों को इसका संग्रह अवश्य ही करना चाहिए। दुर्भाग्य से यह ग्रन्थ खण्डित रूप में ही प्राप्त हुआ है अतः सचित्र ग्रन्थ का प्रकाशन भी खण्डित रूप में ही है। बीच में अनेक पृष्ठ अनुपलब्ध हैं। प्रकाशकों ने इन लुप्त पृष्ठों के मूल पाठों का संकलन भी परिशिष्ट के रूप में कर दिया है जो उनकी श्रमनिष्ठा एवं सूझ-बूझ का परिचायक है। किन्तु यदि परिशिष्ट के रूप में मूलग्रन्थ के अनुपलब्ध पन्नों की विषय वस्तु के साथ ही समस्त ग्रन्थ के विषय वस्तु को देवनागरी लिपि में दे दिया जाता तो अध्येताओं को अधिक सुविधा होती क्योंकि इस सचित्र हस्तप्रत की लिपि को पढ़ने में शोध-कर्ताओं को असुविधा तो होगी ही। जैन न्यायशास्त्र एक परिशीलन-लेखक विजय मुनिशास्त्री, प्रका-दिवाकर प्रकाशन, A7-आवागढ़ हाउस, एम० जी० रोड, आगरा-२, प्र० सं० १९९०, आकार डिमाई, पेपरबैक मूल्य २० रु० । ५ अध्यायों में विभक्त इस पुस्तक के प्रथम अध्याय को ४ प्रकरणों में विभाजित कर भारतीय दर्शनों में न्यायशास्त्र, इन दर्शनों की विशेषतायें, जैन प्रमाण और नय तथा जैन न्याय के कुछ सूत्र-ग्रन्थों का दिग्दर्शन है। दूसरे अध्याय में जैन प्रमाणों, नय और द्रव्य का निरूपण है। तीसरे और चौथे अध्याय में क्रमशः नय और निक्षेप का विवेचन है । अन्तिम अध्याय में शब्दार्थ निरूपण है। जैन प्रमाण नय और निक्षेप के परिचयात्मक विवरण की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी पुस्तक है। विषय का प्रस्तुतीकरण सुव्यवस्थित हैं। पुस्तक की रूप-सज्जा व छपाई अत्यन्त आकर्षक है। पुस्तक का मूल्य अत्यल्प रखकर मुनिश्री ने पुस्तक को सहज-सुलभ बना दिया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525005
Book TitleSramana 1991 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1991
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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