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( १०३ ) भाषा में रचित रामकथा का आदि काव्य माना जाता है। इसी प्रकार रविषेण का पद्मचरित संस्कृत भाषा का जैन रामकथा विषयक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। अपभ्रंश के महाकवि स्वयंभू द्वारा रचित पउमचरिउ भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। जैनाचार्यों ने अपनेअपने युग की भाषाओं में रामकथा पर अनेक ग्रन्थ लिखे हैं।
प्रस्तुत कृति भी उसी क्रम में प्राचीन मरु-गुर्जर में रचित एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, जिसके लेखक विजयगच्छ के मुनि केशराज हैं। रचनाकाल वि० सं० १६८३ (ई० सन् १६२६) है। इस रामकथा का स्थानकवासी और तेरापंथी सम्प्रदाय में विशेष प्रचलन रहा है। इसके कुछ संस्करण भी प्रकाशित हुए हैं किन्तु प्रस्तुत संस्करण का अपना वैशिष्ट्य है। __ प्रस्तुत कृति का सबसे महत्त्वपूर्ण वैशिष्ट्य तो यह है कि यह एक सचित्र प्रति है। इसके चित्र अत्यन्त ही आकर्षक और जीवन्त हैं, तथा उन्नीसवीं शताब्दी की जयपुर एवं मारवाड़ शैली के अनुपम नमूने हैं । प्रो० आनन्द कृष्ण ने इसे मथेन शैली के निकट बताया है। वस्तुतः जैन यतियों का एक वर्ग विशेष जो सचित्र जैन ग्रन्थों की प्रतिलिपि एवं चित्र निर्माण से जुड़ा हुआ था, उनकी शैली ही मथेन शैली कहलाती है।
प्रस्तुत कृति के चित्रों में अनेक स्थलों पर जैन मुनियों का चित्रण भी हुआ है। मुनियों और साध्वियों की वेशभूषा स्थानकवासी परम्परा के अनुरूप चित्रित की गई है । साधु-साध्वियों के मुख पर मुख वस्त्रिका और लम्बी डण्डी युक्त रजोहरण इसके वैशिष्ट्य हैं। चित्र शैली से यह स्थानकवासी परम्परा का ग्रन्थ प्रतीत होता है किन्तु इसमें तीनचार स्थलों पर जिनमन्दिर और जिनबिम्ब का अंकन भी है। रामकथा के साथ-साथ अन्तर्कथा के रूप में जैन परम्परा की अनेक कथाएं भी सम्मिलित हैं और उनका भी सजीव अंकन यहाँ देखा जाता है। चित्र इतने चटकीले और स्पष्ट हैं कि देखते ही बनते हैं। मूल कृति के चित्रों को यथावत् उन्हीं रंगोंमें इस कृति में प्रस्तुत किया गया है । इस महत्त्वपूर्ण एवं व्यय साध्य कार्य के लिए देवकुमार प्राच्य शोध संस्थान निश्चय ही बधाई का पात्र है। इस शोध संस्थान द्वारा स्वपरम्परा से भिन्न सम्प्रदाय के ग्रन्थ का प्रकाशन इसकी उदार दृष्टि का परिचायक है।
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