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( १०२ ) डॉ० सत्यव्रत का प्रस्तुत ग्रन्थ “जैन संस्कृत महाकाव्य" जैन संस्कृत वाङ्मय के एक महत्त्वपूर्ण पक्ष को प्रस्तुत करता है। इसमें १५वीं शताब्दी से १७वीं शताब्दी तक के जैन संस्कृत महाकाव्यों का एक अनुशीलन किया गया है । इस काव्य में बाइस महाकाव्यों के संक्षिप्त परिचय के साथ-साथ उनकी समीक्षा भी की गयी है। प्रस्तुत कृति में इन तीन शताब्दियों में रचित जैन संस्कृत महाकाव्यों को चार भागों में विभक्त किया गया है : (१) शास्त्रीय महाकाव्य, (२) शास्त्र काव्य, (३) ऐतिहासिक महाकाव्य और (४) पौराणिक महाकाव्य ।
प्रस्तुत कृति की समीक्षात्मक विशेषता यह है कि इसमें उस सामान्य अवधारणा का खंडन किया गया है जिसके अनुसार जैन कवियों के काव्यों में शान्त रस ही होता है, शृंगार और वीर रस नहीं। यद्यपि इसके पूर्व डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री का "संस्कृत काव्य में जैन कवियों का योगदान" नामक ग्रन्थ प्रकाशित हुआ किन्तु एक ही ग्रन्थ में सम्पूर्ण जैन काव्य साहित्य का मूल्यांकन उतनी गहराई से सम्भव नहीं था। डॉ सत्यव्रत ने तीन शताब्दियों के जैन संस्कृत महाकाव्यों को विवेच्य विषय बनाकर उसके साथ न्याय करने का प्रयत्न किया है । आशा है प्रस्तुत कृति विद्वत् जगत् में अपेक्षित स्थान प्राप्त करेगी। मुद्रण और प्रस्तुतीकरण अत्यन्त सुन्दर है। इस प्रकाशन के लिए प्रकाशन संस्था 'जैन विश्वभारती, लाडनं' निश्चित ही साधुवाद की पात्र है। जैन विश्वभारती जैन विद्या से सम्बन्धित प्रकाशनों के क्षेत्र में जो श्रेष्ठतम कार्य कर रही है वह स्वागत योग्य है और स्पृहणीय भी । ग्रन्थ पठनीय और संग्रहणीय है ।
जैन रामायण (राम-यशो-रसायन-रास)-मुनि केशराज; सं० डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन; प्रकाशक : जैन सिद्धान्त भवन देवाश्रम, आरा, बिहार; प्रथम संस्करण : १९९१, आकार : डबल डिमाई, सजिल्द, मूल्य ८.०० रु० पृ० ७२+२५
रामकथा का, न केवल हिन्दू परम्परा में अपितु बौद्ध और जैन परम्परा में भी महत्त्वपूर्ण स्थान है । विमलसूरि का पउमचरियं प्राकृत
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