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________________ करना है । जबकि उपनिषदों में यही शब्द ध्यान, तप और समाधि के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जैन परम्परा में योग शब्द सर्वप्रथम मन, वाणी और शरीर की गतिविधियों के अर्थ में आया है। प्राचीन आगम ग्रन्थों और तत्त्वार्थसुत्र में इसका यही अर्थ मिलता है। इसे बन्धन का कारण माना गया है । अतः आगमों में जैन साधना का लक्ष्य योग निरोध माना गया है। यद्यपि इस दृष्टि से जैन परम्परा भी चित्त वृत्ति निरोध की समर्थक है, किन्तु इसमें वृत्ति निरोध को योग न बतलाकर वृत्ति को ही योग कहा गया है। अतः अर्थ में मौलिक भेद होते हुए भी साधना के लक्ष्य में कोई भेद नहीं है। अपने वृत्तिपरक अर्थ के साथ-साथ योग शब्द का संयमपरक अर्थ में प्रयोग भी जैनागमों में मिलता है। सूत्रकृतांग में 'जोगवं स्थानांगसूत्र, में 'जोगवाही' शब्द समाधि में स्थित अनासक्त पुरुषों के लिए प्रयुक्त हुआ है। आचार्य हरिभद्र ने अपनी समन्वयवादी दृष्टि के आधार पर उन सभी साधनों को 'योग' कहा है जिनसे आत्मा की विशुद्धि होती है, कर्म मल का नाश होता है और आत्मा का मोक्ष के साथ संयोग होता है। इस प्रकार हरिभद्र ने योग को बन्धन का कारण नहीं अपितु मुक्ति का साधन माना है। इसके अतिरिक्त इस अध्याय में आचार्य हरिभद्र के जीवन दर्शन और योग के क्षेत्र में उनके अवदान की चर्चा भी की गयी है। द्वितीय अध्याय में आचार्य हरिभद्र के योग सम्बन्धी निम्न ग्रन्थों का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया गया है । १. योगबिन्दु प्रस्तुत ग्रन्थमें ५२७ श्लोक हैं । इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम योग के अधिकारी की चर्चा की गयी है। जिस जीव ने मिथ्यात्व रूपी ग्रन्थि का भेदन कर लिया है उसे ही इस ग्रंथ में योग-साधना का अधिकारी माना गया है। योग के अधिकारी जीवों को आचार्य ने चार भागों में बाँटा है१. तैत्तरीयोपनिषद्-२१४, छान्दोग्यउपनिषद्, ७।६।१, कठोपनिषद्-१।२।१२ २. सूत्रकृतांग, प्रथम श्रुतस्कन्ध, अध्ययन २, उद्देशक १, गाथा-११ ३. स्थानांगसूत्र, १० ४. योगविशिका पा०-सू०-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525003
Book TitleSramana 1990 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1990
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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