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________________ आचार्थ हरिभद्र का योग दर्शन (शोध-प्रबंध-सार ) -धनंजय मिश्र भारतवर्ष में प्राचीन काल से ही आध्यात्मिक विकास हेतु योगसाधना की परम्परा अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित होती आ रही है । यद्यपि देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार साधना की प्रक्रिया में परिवर्तन, परिवर्धन एवं संशोधन होते रहे हैं, तथापि योग की मूल अवधारणा में आमूल परिवर्तन नहीं हुआ है। जैन योग की परम्परा भी इसका अपवाद नहीं है। यद्यपि जैन योग परम्परा की अपनी विशिष्टता है । जैन योग को विशिष्ट स्वरूप प्रदान करने वाले आचार्यों में महत्तरा याकिनीसनु हरिभद्र सूरि अग्रगण्य हैं। अनेक विद्वानों ने जैन योग पर शोध कार्य किया जिसके फलस्वरूप कुछ स्वतन्त्र समीक्षात्मक ग्रन्थ भी प्रकाश में आये; इनमें १. आचार्य आत्माराम जी कृत 'जैनयोग' सिद्धान्त और साधना, २. मुनि नथमल जी कृत जैन योग, ३. डा० अहंदास बंडोबा दिगे लिखित 'जैनयोगकाआलोचनात्मक अध्ययन' आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। परन्तु विषय की व्यापकता के कारण उक्त ग्रन्थों में आचार्य हरिभद्र द्वारा प्रतिपादित जैन योग की अवधारणा का समग्रता के साथ प्रस्तुतिकरण नहीं हो सका है। अतः हरिभद्र के योग-विषयक साहित्य का सांगोपांग समीक्षात्मक विवेचन प्रस्तुत करना मेरा अभीष्ठ रहा है। इस हेतु शोध निबन्ध में हरिभद्र के योग-विषयक ग्रन्थों को आधार बनाकर जैन योग के क्षेत्र में इनके अवदान को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। इस शोध प्रबन्ध के प्रथम अध्याय में योग शब्द के विभिन्न अर्थों पर विचार करते हुए सामान्य रूप से जैन परम्परा द्वारा एवं विशेष रूप से हरिभद्र द्वारा योग शब्द को किन-किन अर्थों में प्रयुक्त किया गया है इस पर विचार किया गया है। सबसे पहले योग शब्द ऋग्वेद में प्राप्त होता है,' जहाँ इसका अर्थ जोड़ना, मिलाना अथवा संयोग १. ऋग्वेद-१०-१६७-१, शतपथब्राह्मण-१४-८-११ . . ankoart. w Tra ersamaadima F Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525003
Book TitleSramana 1990 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1990
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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