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छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार श्रीकृष्ण घोर आंगिरस ऋषि के अनुयायी थे । घोर आंगिरस ने वासुदेव कृष्ण को आत्म-यज्ञ की शिक्षा प्रदान की थी । उस यज्ञ की दक्षिणा तपश्चर्या, दान, ऋजुभाव, अहिंसा तथा सत्यवचनरूप थी ।' बिद्वानों का यह मन्तव्य है कि घोर आंगिरस भगवान् श्री नेमिनाथ का ही नाम होना चाहिए ।' 'घोर' शब्द भी जैन श्रमणों के आचार और तपस्या का प्रतिरूपक है । " जैन संस्कृति के उपासक होने के नाते उनकी राजनीति भी अहिंसा प्रधान थी । महाभारत के प्रलयकारी युद्ध को रोकने के लिए श्रीकृष्ण ने जो प्रयत्न किया, वह इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित है । श्रीकृष्ण पाण्डवों के अधिकार को लेकर सन्धि करने हेतु हस्तिनापुर गये और उन्होंने वहाँ धृतराष्ट्र की सभा में अपने आने के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए कहा - कौरवों और पाण्डवों में बिना वीरों का नाश किये ही शान्ति स्थापित हो जाय यही प्रार्थना करने आया हूँ।*
इस पर धृतराष्ट्र ने कहा- हे कृष्ण ! मैं सब समझता हूँ पर तुम दुर्योधन को समझा सको तो प्रयत्न करो । कृष्ण ने दुर्योधन से कहाहे तात ! शान्ति से ही तुम्हारा और जगत् का कल्याण होगा ।" यह सर्वविदित है कि कृष्ण को प्रयत्न करने पर भी सफलता नहीं मिली ? फिर भी उनके इस प्रयत्न की प्रशस्तता तो महान थी ही ।
सभी जैन तीर्थंङ्कर क्षत्रिय राज्यवंश में ही उत्पन्न हुए थे । अतएव उनका राज्यवंश के साथ प्रारम्भ से ही घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है । राजा लोग भी राज्य की सुव्यवस्था के लिए जैन संस्कृति से प्रेरणा प्राप्त
१. अतः यत् तपोदानमार्जवम हिंसासत्यवचनमिति ता अस्य दक्षिणा
-- छान्दोग्य उपनिषद् ३ | १७|४
घोरबंभचेरवासी । - भगवती १।१
२. घोरतवे घोरे, घोरगुणे घोर तवस्सी, ३. कल्पसूत्र, विवरण, पृ० २६२ (सं० देवेन्द्रमुनि शास्त्री ) ४. शमे शर्मं भवेत्तात ! - महाभारत, उद्योगपर्व १२४|१९ ५. आवश्यकचूर्णि उत्तरार्द्ध, पृ० १६४ ।
देखिए - त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित १०-६-१८८
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