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________________ ( ३० ) से अपराधी व्यक्ति को दण्डित करना) और मंडल - बंध ( सीमित क्षेत्र में रहने का दण्ड देना) ये दो दण्ड नीतियाँ प्रारम्भ कीं । " इस प्रकार ऋषभदेव ने राज्य की सुव्यवस्था के लिए तथा प्रजा के हित के लिए जिन नियमोपनियमों की आवश्यकता थी, उन सबका निर्माण कर राज्य का संचालन किया। उनके राज्य में प्रजा अत्यंत सुखी थी । इस प्रकार जैन संस्कृति में शासनतंत्र और राजनीति का प्रादुर्भाव धर्म-नीति से भी पूर्व हुआ । ऋषभदेव ने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को राज्य का उत्तराधिकारी बनाकर प्रवज्या ली। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि सम्राट भरत के नाम से ही इस देश का नाम भारतवर्षं पड़ा ।" सम्राट भरत जैन संस्कृति के परम उपासक थे । उन्होंने अपने पिता द्वारा प्राप्त राज्यश्री का अत्यधिक विस्तार किया और चक्रवर्ती सम्राट बने । परिमाण और मण्डल-बन्ध के अतिरिक्त चारक ( बन्दीगृह ) और छविच्छेद (करादि अंगोपांगों का छेदन) - ये दो दण्ड सम्राट भरत ने प्रारम्भ किये। इन दण्ड नीतियों का उद्देश्य भी मानव जीवन में सुख और शान्ति का संचार करना ही था । १. आद्यद्वयमृषभकाले अन्ये तु भरतकाले इत्यन्ये । २. कल्पसूत्र सू० १९५, पृ० ५७ ३. श्रीमद्भागवत ५।४।१८ पृ० ५५८-५५९ ४. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-सूत्र ३६, पृ० ७७ तथा देखिए -- श्रीमद्भागवत ५|५|२८|५६३ ५. तत्थ भरहो भरहवास चूडामणि । तस्सेव नामेण इहं भारहवासं ति पव्वुचति । - वसुदेव हिण्डी प्रथमखण्ड पृ० १८६ तथा देखिए – अजनाभं नामैतद्वर्ष भारतमिति यत आरम्य व्यपदिशन्ति । - भागवत ५।७१३ पृ० ५६९ स्थानांगवृत्ति ७।३।५५७ ६. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र, 'भरताधिकार' | ७. परिहासणा उ पढ़मा, मंडलिबंधो उ होइ बीया उ । चारगछविछेयाई, भरहस्स चउव्विहा नीति || Jain Education International --आवश्यकभाष्य-गा० ३ तथा - आवश्यकनियुक्ति, मलयगिरि वृत्ति, पत्र सं० २३७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525003
Book TitleSramana 1990 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1990
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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