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________________ ( १० ) के अतिरिक्त कोई जानकारी नहीं देते। तमिलनाडु में अभिलेख युक्त जो गुफायें हैं, वे सम्भवतः निर्ग्रन्थों के समाधि मरण ग्रहण करने की स्थल रही होगीं । संगम युग के तमिल साहित्य से इतना अवश्य ज्ञात होता है कि जैन श्रमणों ने भी तमिल भाषा के विकास और समृद्धि में अपना योगदान दिया था । तिरुकुरळ के जैनाचार्य कृत होने की भी एक मान्यता है । ईसा की चौथी शताब्दी में तमिल देश का यह निर्ग्रन्थसंघ कर्नाटक के रास्ते उत्तर की ओर बढ़ा, उधर उत्तर का निर्ग्रन्थसंघ सचेल ( श्वेताम्बर ) और अचेल ( यापनीय ) इन दो भागों में विभक्त होकर दक्षिण में गया । सचेल श्वेताम्बर परम्परा राजस्थान, गुजरात एवं पश्चिमी महाराष्ट्र होती हुई उत्तर कर्नाटक पहुँची, तो अचेल यापनीय परम्परा बुन्देलखण्ड एवं विदिशा होकर विंध्य और सतपुड़ा को पार करती हुई पूर्वी महाराष्ट्र से होकर उत्तरी कर्नाटक पहुँची । ईसा की पाँचवी शती में उत्तरी कर्नाटक में मृगेशवर्मा के जो अभिलेख मिले हैं उनसे उस काल में जैनों के पाँचों संघों के अस्तित्व की सूचना मिलती है - ( १ ) निर्ग्रन्थसंघ, ( २ ) मूल संघ, ( ३ ) यापनीयसंघ, (४) कूर्चकसंघ और ( ५ ) श्वेतपट महाश्रमण संघ । इसी काल में पूर्वोत्तर भारत में वटगोहली से प्राप्त ताम्रपत्र में पंचस्तूपान्वय के अस्तित्व की भी सूचना मिलती है । इस युग का श्वेतपट महाश्रमणसंघ अनेक कुलों एवं शाखाओं में विभक्त था, जिसका सम्पूर्ण विवरण कल्पसूत्र एवं मथुरा के अभिलेखों से प्राप्त होता है । चैत्यवास और भट्टारक परम्परा का उदय : दिगम्बर परम्परा में भट्टारक सम्प्रदाय और श्वेताम्बर परम्परा में चैत्यवास का विकास इसी युग अर्थात् ईसा की पाँचवी शती से प्रारम्भ होता है । यद्यपि जिन मन्दिर और जिन प्रतिमा के निर्माण के पुरातात्त्विक प्रमाण मौर्यकाल से तो स्पष्ट रूप से मिलने लगते हैं । शक और कुषाण युग में इसमें पर्याप्त विकास हुआ, फिर भी ईसा की ५वीं शती से १२वीं शती के बीच जैन शिल्प अपने सर्वोत्तम रूप को प्राप्त होता है । यह वस्तुतः चैत्यवास की देन है ( दोनों परम्पराओं में इस युग में मुनि वनों को छोड़कर चैत्यों ( जिन - मन्दिरों ) में रहने लगे थे । केवल इतना ही नहीं, वे इन चैत्यों की व्यवस्था भी करने लगे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525003
Book TitleSramana 1990 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1990
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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