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________________ जैनविद्या 25 अप्रेल 2011-2012 भगवती आराधना में प्रतिपादित मरण-समाधि-सल्लेखना - डॉ. कस्तूरचन्द्र 'सुमन' जैसे संसार में संसारी प्राणियों को शुभ-अशुभ, सुख-दुःख, योग-वियोग प्राप्त होते देखे जाते हैं, ऐसे ही यहाँ जीवन के साथ मरण का सद्भाव/अस्तित्व भी पाया जाता है। जब तक जन्म से छुटकारा नहीं मिलता जीव को मरना ही पड़ता है। जीव आयु के वश से ही जन्मता है, जीवित रहता है और पूर्व आयु के नाश होने पर मरता है। कहा भी है - आउगवसेण जीवो जायदि जीवदि य आउगस्सुदये। अण्णाउगोदये वा मरदि य पुव्वाउणासे वा।। पृ. 50 प्राण-ग्रहण करना जन्म और प्राणों को धारण करना जीवन तथा प्राणों का परित्याग करना मरण कहा है। प्राणग्रहणं जन्म, प्राणानां धारणं जीवितं, प्राणपरित्यागो च मरणं (पृ. 49)। प्राण दस कहे हैं - प्राणां दशास्य सन्तीति। महापुराण 24.105
SR No.524770
Book TitleJain Vidya 25
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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