SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनविद्या 25 जो जारिसीय मेत्ती केरइ जो जारिसीय मेत्ती केरइ सो होइ वारिसो चेव।345। दुज्जणसंसग्गीए पजहदि णियगं गुणं खु सुजणो वि। सीयलभावं उदयं जह पजहदि अग्गिजोएण।346। जहदि य णिययं दोसं पि दुज्जणो सुयणवइयरगुणेण।3521 जइ भाविज्जइ गंधेण मट्टिया सुरभिणा व इदरेण। किह जोएण ण होज्जो परगुणपरिभाविओ पुरिसो।344। - आचार्य शिवार्य भगवती आराधना - जो जिस प्रकार की वस्तु से मैत्री करता है वह वैसा ही हो जाता है।345। दुष्टजन के संसर्ग से सज्जन भी अपना गुण छोड़ देता है। जैसे - आग के सम्बन्ध से जल भी अपने शीतल स्वभाव को छोड़ देता है।346।। सज्जनों की संगति से दुर्जन अपना दोष भी छोड़ देता है।3521 (ठीक ही है) यदि सुगन्ध अथवा दर्गन्ध के संसर्ग से मिट्टी भी सुगन्धित अथवा दुर्गन्धयुक्त हो जाती है तो संसर्ग से समीपस्थ या सहचर आदि के गुणों से तन्मय क्यों नहीं होगा।3441 अनु. - पण्डित कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री
SR No.524770
Book TitleJain Vidya 25
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy