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________________ 74 जैनविद्या - 22-23 कार्य को त्यागने की। बिना कार्य के भवितव्यता का लक्षण ही नहीं बनता अतः पद की भूमिकानुसार कार्य करना अपेक्षित है। निष्क्रियता का आश्रय भवितव्यता का उपहास है। श्री पं. जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' ने अध्यात्म-रहस्य हिन्दी व्याख्या में स्पष्ट किया है कि "भगवान सर्वज्ञ के ज्ञान में जो कार्य जिस समय, जहाँ पर, जिसके द्वारा, जिस प्रकार से होना झलका है वह उसी समय, वहीं पर, उसी के द्वारा और उसी प्रकार से सम्पन्न होगा, इस भविष्य-विषयक कथन से भवितव्यता के उक्त आशय में कोई अन्तर नहीं पड़ता; क्योंकि सर्वज्ञ के ज्ञान में उस कार्य के साथ उसका कारण-कलाप भी झलका है, सर्वथा नियतिवाद अथवा निर्हेतुकी भवितव्यता, जो कि असम्भाव्य है, उस कथन का विषय ही नहीं है। सर्वज्ञ का ज्ञान ज्ञेयाकार है न कि ज्ञेय ज्ञानाकार" (पृष्ठ -83-84)। भगवती भवितव्यता के रहस्य को समझने से चित्त में समता-भाव जाग्रत होता है जो आत्म-साक्षात्कार के लिए सहायक है। अत: इसकी भावना भाना श्रेष्ठ है। 6. स्व-समर्पण हेतु आत्मा के अद्वैत-सच्चिदानन्दस्वरूप की भावना वस्तु-स्वरूप के प्रति अहंभाव आये बिना आत्म-समर्पण नहीं होता। इसी दृष्टि से स्वात्मा विचार करता है कि 'निश्चय से आत्मा सत्, चित् और आनन्द के साथ अद्वैत रूप ब्रह्म है वह मैं ही हूँ, इस प्रकार के निरन्तर अभ्यास से ही मैं अपने निर्मल आत्मा में लीन होता हूँ (श्लोक 30)। जो आत्मा को कर्मादिक से सम्बद्ध देखता है वह द्वैतरूप है जबकि जो भव्य आत्मा अन्य पदार्थों से विभक्त-भिन्न अपने को देखता है वह अद्वैत रूप परमब्रह्म को देखता है। अतः अद्वैत स्वरूप की भावना भाओ। . (अ) सत् स्वरूप - आत्म-स्वचतुष्टय रूप द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की दृष्टि से प्रतिक्षण ध्रौव्य-उत्पत्ति-व्ययात्मक सत्स्वरूप है, सत्तावान है। पर-चतुष्टय की दृष्टि से असत्स्वरूप है (श्लोक 31)। जैसा जगत है वैसा मैं कभी नहीं हूँ और जैसा मैं हूँ वैसा जगत कभी नहीं रहा; क्योंकि कथंचित् सर्व पदार्थों की परस्पर विभिन्नता का अनुभव होता है (श्लोक 32)। पुद्गल में रूपादिगुण, धर्मद्रव्य में गति सहकारिता, अधर्म द्रव्य में स्थिति सहकारिता, काल द्रव्य में परिणमत्व और आकाशद्रव्य में अवगाहनत्व गुण हैं । सर्वद्रव्यों की अर्थ पर्याय सूक्ष्म और प्रतिक्षण नाशवान है (श्लोक 38)। जीव और पुद्गल की व्यंजन पर्याय वचनगोचर, स्थिर और मूर्तिक है। प्रत्येक द्रव्य अर्थ-व्यंजन पर्यायमय है और वे पर्यायों द्रव्यमय हैं (श्लोक 39)। . (ब)चित्स्वरूप- 'आत्मा ने अनादिकाल से अपने चैतन्यस्वरूप को जाना है, आज भी जान रहा है और अनन्तकाल तक अन्य किसी प्रकार से जानता रहेगा। जाननेवाला ध्रुव चेतन द्रव्य 'मैं' हूँ (श्लोक 33)। प्रत्येक द्रव्य पूर्व पर्याय में नष्ट होता हुआ वर्तमान
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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