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________________ 73 जैनविद्या - 22-23 आत्मा द्वारा निरंतर अनुभव किये जानेवाले राग-द्वेष-क्रोधादि भाव भाव - कर्म हैं, (कार्य में कारण के उपचार से) तथा कर्मरूप परिणत पुद्गल पिण्ड में जो अज्ञान तथा रागद्वेषादिक फलदान की शक्ति है, जिसके वश संसारी जीव, राग- -द्वेष करता है, वह भाव कर्म है (श्लोक 61) । जिस ज्ञानावरणादिक रूप पुद्गल कर्म के द्वारा चैतन्य स्वरूप आत्मा विकारी होकर कर्म-अनुरूप अवस्था धारण करता है, द्रव्य-कर्म है ( श्लोक 62 ) । तथा जीव में जो अंगादिक हैं उनकी वृद्धि हानि के लिए जो पुद्गल - समूह कर्मोदयवश तद्रूप विकार को प्राप्त होता है, वह नो कर्म है ( श्लोक 63 ) । 'नो' शब्द अल्प, लघु या किंचित अर्थ का सूचक है। इससे ममत्व भाव विसर्जित होता है । 4. हेय - उपादेय विवेक भावना सिद्धि अर्थात् स्वात्मोपलब्धि के लिए हेय-उपादेय, सत असत का ज्ञान और तदनुसार भावना अपेक्षित है । व्यवहार नय की अपेक्षा बाह्य विषयक मिथ्यादर्शन - ज्ञान - चारित्र हेय है, असत् है और सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र उपादेय ( ग्राह्य) है और सत् है । निश्चय नय की दृष्टि से मिथ्यादर्शनादिक हेय और असत् है तथा अध्यात्म-विषयक सम्यग्दर्शनादिक उपादेय है, जो कि सत् है ( श्लोक 64 ) । परम शुद्ध निश्चयनय से मेरे लिए न कुछ हेय है और न कुछ उपादेय ( ग्राह्य) है । मुझे तो स्वात्मोपलब्धि रूप सिद्धि चाहिये, चाहे वह यत्नसाध्य हो या अयत्नसाध्य–उपाय करने से मिले या बिना उपाय के ही मिले (श्लोक 65 ) । जो निष्ठात्मा - स्वात्मस्थित कृतकृत्य हो गया है उसके लिए बाह्य - अभ्यन्तर त्याग ग्रहण का प्रश्न ही नहीं उठता। 5. भवितव्यता आधारित अहंकार- विसर्जन की भावना जीवन में अहंकार और ममकार के संकल्प-विकल्प दारुण आकुलता के निमित्त बनते हैं। इनका विसर्जन भगवती भवितव्यता का आश्रय लेने से होता है । कर्तृत्व के अहंकार के त्याग हेतु कहा है कि 'यदि सद्गुरु के उपदेश से जिनशासन के रहस्य को आपने ठीक निश्चित किया है, समझा है तो 'मैं करता हूँ' इस अहंकारपूर्ण कर्तृत्व की भावना छोड़ो और भगवती भवितव्यता का आश्रय ग्रहण करो (श्लोक 66 ) । कोई भी कार्य अंतरंग और बहिरंग अथवा उपादान और निमित्त इन दो मूल कारणों के अपनी यथेष्ट अवस्थाओं में मिले बिना नहीं होता। जो भी कार्य होता है स्वभाव, निमित्त, नियति (काललब्धि) पुरुषार्थ और भवितव्यता (होनहार ) इन पाँच समवायपूर्वक होता है । अत: कर्तृत्व के अहंकार के विसर्जन हेतु पुरुषार्थपूर्वक कार्य करना इष्ट है किन्तु फल की एषणा (अभिलाषा) भवितव्यता पर छोड़ना चाहिये । इसीलिये जैन आगम में स्वामी समन्तभद्र ने स्वयंभूस्तोत्र में भवितव्यता को अलंघ्य-शक्ति कहा है, जिसे यहाँ ' भगवती' शब्द से सम्बोधित किया है। स्मरणीय है कि यहाँ कार्य में कर्तृत्व के अहंकार के त्याग की बात कही है, न कि
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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