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________________ 72 जैनविद्या - 22-23 व्यवहार-निश्चय सम्यक्चारित्र आत्मा की सर्व-सावद्य-योग (मन-वचन-काय से हिंसादि कार्यों) से निवृत्ति गौण (व्यवहार) सम्यक्चारित्र है । और कर्म-छेदन से उत्पन्न आनन्द-परमानन्दमयवृत्ति मुख्य (निश्चय) सम्यक्चारित्र है (श्लोक 70)। उभय रत्नत्रय की कल्याणकारिता की घोषणा पूर्ण आत्म-विकास में उभय रत्नत्रय कल्याणकारी है जो अपूर्णतया अल्पशुद्धि से पूर्ण शुद्धि की ओर ले जाता है और साधन-साध्य का कार्य करता है । पं. जी के अनुसार जो जीव काललब्धि आदि के वश से तत्वार्थ के अभिनिवेशरूप-श्रद्धात्मक शुद्धि को, तत्वार्थ निर्णयरूप सम्यग्ज्ञानात्मक शुद्धि को तथा तपश्चरणमयी सम्यक्चारित्ररूप-शुद्धि को, जो विकल व्यवहार रूप अपूर्ण है, धारण करते हैं वे स्वात्म प्रत्यय - निजात्म प्रतीति-रूप सम्यग्दर्शन, स्वात्मवित्ति-निजात्मज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान और तल्लीनतामय-निजात्म, निमग्नतारूप सम्यकचारित्रमयीपूर्ण आत्म-शुद्धि को प्राप्त करनेवाले भव्य सिंह हैं (श्लोक 71)। . आत्माभिमुखी स्वात्मा की भावना एवं धारणा का स्वरूप 1. अकर्ता-अभोक्तास्वरूप की भावना स्वात्मा को अपने शुद्ध-स्वरूप में स्थिर तथा दृढ़ करने हेतु साधक भावना-भाता है कि 'मैं ही मैं हूँ', इस आत्मज्ञान से भिन्न अन्य में 'यह मैं हूँ', 'मैं यह करता हूँ', 'मैं यह भोगता हूँ', इस प्रकार की चेतना-विचार को त्यागता है (श्लोक 18)। आत्मज्ञान से भिन्न अन्य कार्य को चिरकाल तक बुद्धि में धारण नहीं करता, यदि प्रयोजनवश कुछ समय के लिए वचन और काय से करना भी पड़े तो अनासक्ति भाव से करना चाहिये (समाधितंत्र, श्लोक 50)। इससे कर्तृत्व-भोक्तृत्व भाव विसर्जित होता है। 2. रागादिक विभावों के विनाश की भावना राग-द्वेष-मोह आत्मा के अतीव उग्र शत्रु हैं उनकी अनुत्पत्ति और विनाश के लिए स्वात्मा बड़ी तत्परतापूर्वक नित्य ही अपने शुद्ध-बुद्ध-चिद्रूप-स्वात्मा की भावना भाता है (श्लोक 26)। इससे रागादिक के प्रति स्वामित्व भाव विसर्जित होता है। 3. भाव-द्रव्य-नो कर्म के त्याग की भावना कर्म और कर्म-फल से आसक्ति घटाने एवं उनसे निवृत्ति हेतु स्वात्मा भावना भाता है कि रागादिक भावकर्म, ज्ञानावरणादिक द्रव्य कर्म और शरीरादिक नो कर्म मेरा स्वरूप नहीं है, मुझसे भिन्न बाह्य पदार्थ हैं - मैं उन्हें त्यागता हूँ और उनसे उपेक्षा धारण करता हूँ (श्लोक 76)।
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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