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________________ जैनविद्या - 22-23 75 पर्याय में उत्पन्न होता हुआ सत्रूप से सदा स्थिर रहता हुआ 'यह वही है ' इस प्रकार ज्ञान में लक्षित होता है उसी प्रकार सारा द्रव्य समूह त्रि-गुणात्मक अनुभव किया जाता है। मैं भी एक चेतन द्रव्य हूँ अतः अनादि संतति से उसी प्रकार अपनी चेतन पर्यायों के द्वारा परिवर्तित हो रहा हूँ और सदा से चेतनामय बना हुआ हूँ (श्लोक 34-35)। द्रव्य गुणपर्यायवान है। जो सहभावी हैं वे गुण हैं और जो क्रमभावी हैं वे पर्याये हैं। जीवात्मा में असाधारण चैतन्यगुण है जो जीव के साथ सदा रहता है और कभी उससे अलग नहीं हो सकता (श्लोक 36)। स्वात्मा यह भावना भाता है कि जिस प्रकार मुक्ताहार में हार-मोतीशुक्लता पृथक्-पृथक् होते हुए भी प्रतीत में सभी हारमय हैं उसी प्रकार आत्म-द्रव्य में 'मैं चैतन हूँ, मुझमें चैतन्य है और चेतन-पर्यायों में चैतन्य गुण रहता है', इस प्रकार मैं आत्मद्रव्य में तन्मय हो रहा हूँ, आत्मद्रव्य इनके साथ तन्मय हो रहा है। ऐसी प्रतीत-भावना निरन्तर बनी रहे (श्लोक 40)। (स) आनन्दस्वरूप - चैतन्य गुण के समान आनन्दगुण भी आत्मा का है जो अन्य द्रव्यों में नहीं पाया जाता। शुद्ध-स्वात्मा अपने में ही उस शाश्वत आनन्द गुण का चिन्तन करता हुआ यह अनुभव करता है कि ऐसा आनन्द चक्रवर्ती, इन्द्र, अहमिन्द्र और धरणेन्द्र को भी कभी प्राप्त नहीं होता। यह आनन्द गुण अतीन्द्रिय तथा स्वाधीन है जिसके समक्ष सभी लौकिक सुख फीके पड़ते हैं (श्लोक 41)। 7. हृदय में परब्रह्मस्वरूप के स्फुरण की भावना . आत्मानुभव के लिए उत्सुक स्वात्मा आनन्दमय-चैतन्य रूप से प्रकाशित परमब्रह्म की भावना भाता है कि वह उसके मन में सदा स्फुरायमान हो। उसकी इस प्रबल भावना के फलस्वरूप त्रिकर्म से रहित देह-देवालय में विराजमान आत्म प्रभु का साक्षात्कार हो पाता है (श्लोक 72 भावार्थ)। 8. अन्तर्जल्प के परित्याग एवं आत्म-ज्योति-दर्शन की भावना ___ स्वात्मा-साधक को प्रेरणा दी गयी है कि वह उक्तानुसार भाव-भूमि में 'मैं ही मैं हूँ' इस प्रकार के अंतरजल्प से सम्बद्ध आत्मज्ञान की कल्पना में ही न उलझा रहे किन्तु इसका भी त्याग कर वचन-अगोचर अविनाशी-ज्योति का स्वयं अवलोकन करना चाहिए (श्लोक 19)। यहाँ विकल्प-रहित स्वात्मदर्शन की भावना भायी है। आत्मदर्शन का उपाय : विकल्प त्याग 'मैं ही मैं हूँ' इस अंतरजल्प के त्याग के पश्चात् हृदय जिस-जिसका उल्लेख करता चित्र खींचता है, उस-उस को अनात्मा की दृष्टि से - यह आत्मा नहीं है, ऐसा समझ कर छोड़ना चाहिये। उस प्रकार के विकल्पों के उदय न होने पर आत्मा अपने स्वच्छ
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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