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________________ 36 जैनविद्या - 22-23 के क्रमिक धार्मिक विकास-स्तर के भी सूचक हैं । दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, सचित्त-विरत, दिवा मैथुन-विरत इन प्रतिमाओं के धारक जघन्य श्रावक हैं। अब्रह्मविरत, आरम्भ-विरत और परिग्रह-विरत प्रतिमाओं के धारक वर्णी, ब्रह्मचारी या मध्यमश्रावक हैं। अनुमति-विरत और उद्दिष्ट-विरत प्रतिमा भिक्षुक या उत्तम श्रावक की हैं । दार्शनिक श्रावक मद्य, मांस, मधु, मक्खन आदि का व्यापार त्रियोगपूर्वक न तो स्वयं करता है, न करवाता है और न उसकी अनुमोदना करता है। चमड़े में रखे घी आदि का त्यागी होता है। सप्त व्यसनों का त्यागी होता है। पाक्षिक श्रावक इनका सातिचार और दार्शनिक श्रावक निरतिचार पालन करता है। चौथे अध्याय में दूसरी व्रत प्रतिमा का स्वरूप और पंचाणुव्रतों के भेद-प्रभेद आदि का वर्णन 66 श्लोकों में किया है। ऐसा श्रावक माया, मिथ्यात्व और निदान रूप तीन शल्यों से रहित होता है। उसके पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत - ये बारह व्रत उत्तरगुण होते हैं । वह चारों प्रकार के रात्रि भोजन का त्यागी होता है। पाँचवें अध्याय में 55 श्लोक हैं जिसमें तीन गुणव्रतों - दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत और चार शिक्षाव्रतों - देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और अतिथिसंविभाग व्रत तथा उनके अतिचारों का वर्णन है । अन्तिम श्लोक में पं. आशाधरजी ने सम्यग्दर्शन की शुद्धता सहित पाँच अणुव्रत और सात शीलव्रतों के निरतिचार पालन करनेवाले, समितियों में तत्पर, संयमनिष्ठ, जिनागमज्ञानी, गुरु-सेवक, दया-दान में तत्पर सरल-सदाचारी महानुभाव को 'महाश्रावक' घोषित किया है ।22 ___ छठे अध्याय में श्रावक की सम्पूर्ण दैनिकचर्या का वर्णन 45 श्लोकों में किया है जो व्यक्ति को सदाचारी एवं आदर्श धार्मिक नागरिक बनाता है। व्रती श्रावक को ब्रह्ममुहूर्त में सोकर उठकर णमोकार मंत्र की जाप देकर 'मैं कौन हूँ', 'मेरा क्या धर्म है', और व्रतादिक की क्या स्थिति है आदि विषयों पर चिन्तवन करना चाहिये। नित्यकर्म के बाद देव-दर्शन, पूजन आदि विधिपूर्वक सम्पूर्ण मनोयोग से करना चाहिये। पश्चात् अपना व्यावसायिक कार्य हर्ष-विषादरहित भाव से करे। मध्याह्न की वन्दना कर अतिथि के प्रतीक्षापूर्वक आहार दान देकर भोजन करे। हिंसक मनोरंजन आदि से विरत रहे । भोजन के बाद विश्राम करके गुरुओं और साधर्मी बन्धुओं के साथ तत्त्व-विचार एवं जिनागम के रहस्यों का विचार करे। सन्ध्या में देवपूजा तथा षटकर्म अनुसार सामायिककर शक्ति अनुसार ब्रह्मचर्य का पालन करे। नींद टूटने पर वैराग्य एवं मोह टूटने की भावना भावे और मोह-क्षय हेतु निरंतर प्रयत्नशील रहे । व्रतीश्रावक निरंतर मुनिधर्म के पालन करने की भावना भाता हुआ बुद्धिपूर्वक सुख-दुख, जीवन-मरण, शत्रु-मित्र एवं मणि-धूल में समताभाव धारण करता है तथा निर्विकल्प समाधि की भावना भाता है।
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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