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________________ जैनविद्या - 22-23 37 सातवें अध्याय में 61 श्लोक हैं जिनमें दर्शन और व्रत प्रतिमाओं के आगे की सामायिक आदि नौ प्रतिमाओं का स्वरूप बताया है। श्रावक क्रम से शक्ति अनुसार इन प्रतिमाओं को धारण करता हुआ आत्मशुद्धि हेतु अनगारी (दिगम्बर साधु ) होने का उपक्रम करता है । अन्तिम उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा, जो श्रमणचर्या का मूलाधार है, का वर्णन बहुत विस्तार से किया है जो पठनीय और अनुकरणीय है। श्रावक को दर्शन-व्रत प्रतिमा आदि के साथ दान, शील, उपवास और पूजा भी यथायोग्य करना चाहिए और ग्रहण किये व्रतों की रक्षा सप्रयत्न करना चाहिये । व्रत भंग भव-भव में दुखदायी होता है। श्रावक को अध्यात्म आदि विषयक उत्तम स्वाध्याय, अनित्यादि भावना तथा दर्शन विशुद्धि आदि सोलहकारण भावनाओं का प्रमादरहित होकर चिंतवन करना चाहिये और सल्लेखनापूर्वक समाधिमरण की भावना भाना चाहिये । - आठवें अध्याय के 111 श्लोकों में साधक श्रावक का वर्णन सविस्तार किया है और अंत में सल्लेखनापूर्वक समाधिमरण को 'महायज्ञ' दर्शाते हुए उसे महिमामंडित किया है। समाधिमरण को प्राप्त हुआ भव्य जीव इस संसाररूपी पिंजरे को तोड़ देता है, यही उसका माहात्म्य है । पण्डित जी ने समाधिमरण में स्थित श्रावक की मोक्ष भावना भायी है, जो इस प्रकार है 23 शुद्धं श्रुतेन स्वात्मनं गृहीत्वार्य स्वसंविदा | भावयंस्तल्लयापास्तचिन्तो मृत्वैहि निर्वृतिम् ॥ 93 ॥ आर्य, श्रुतज्ञान के द्वारा राग-द्वेष-मोह से रहित शुद्ध निजचिद्रूप का निश्चय करके, स्वसंवेदन के द्वारा अनुभवन करके और उसी में लय होने से समस्त विकल्पों को दूर करके अर्थात् निर्विकल्प ध्यानपूर्वक मरण करके मोक्ष को प्राप्त करो । पंडितप्रवर, तत्वमर्मज्ञ पं. आशाधरजी ने उक्त श्लोक में संक्षेप में मोक्ष प्राप्ति का उपाय बता दिया है। आत्मार्थी को सर्वप्रथम जिनागम के अभ्यास से आत्मा के शुद्ध स्वरूप का निर्णय करना चाहिये । पश्चात् स्वसंवेदन के द्वारा आत्मा की अनुभूति करनी चाहिये । आत्मानुभूति ही वास्तव में सम्यक्त्व है। शुद्धात्मानुभूति निर्विकल्प आत्मा में लीन होने से होती है। इस तरह मरण हो तो उत्कृष्ट तीन भव में मुक्ति हो सकती है। इस प्रकार पण्डित जी ने धर्मामृत के द्वारा आत्मा से परमात्मा होने का अंतर - बाह्य स्वरूप बताकर भव्य जीवों का परम उपकार किया है। सभी आत्मस्वरूप को पहिचान कर जिनेश्वरी मार्ग का अनुसरण करें, यहीं भावना है। 1 अध्यात्म रहस्य ग्रंथ अध्यात्म रहस्य में पण्डित प्रवर आशाधरजी का द्रव्यानुयोग विषयक ज्ञान एवं मौलिक चिंतन प्रकाशित हुआ है। इसमें संस्कृत के 72 श्लोक हैं, जो महान कवि विद्वान ने अपने
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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