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________________ जैनविद्या - 22-23 35 के गुणानुराग का फल दर्शाते हुए कहा है कि भगवान के गुणों में अनुराग करने से शुभभाव होते हैं, उनसे कार्यों में विघ्न डालनेवाले अन्तराय कर्म के फल देने की शक्ति क्षीण होती है अत: अन्तराय कर्म इष्ट का घात करने में असमर्थ होता है। अत: वीतरागी अरहंतसिद्ध आदि का स्तवन-नमस्कार आदि से इच्छित प्रयोजन की सहज सिद्धि होती है। 2. सागार धर्मामृत - मानव जीवन की महत्ता सद्विचार और सदाचार में निहित है। मानव जीवन से ही संयम द्वारा ज्ञायक भावरूप स्वभाव को प्राप्त किया जा सकता है। गृहस्थ जीवन प्रवृत्तिमूलक होकर निवृत्ति मार्ग की प्रयोगशाला है जो क्रमिकरूप से व्यक्ति को निवृत्तिमार्गी साधुत्व के योग्य बनाता है। सागार धर्मामृत में गृहस्थ जीवन के आचारविचार का सांगोपांग वर्णन किया है। प्रथम अध्याय में 20 श्लोक हैं जिसमें श्रावक धर्म का वर्णन है। आगार घर को कहते हैं और जो घर में रहते हैं वे सागार (स-आगार) कहलाते हैं । ये आहार, भय, मैथुन और परिग्रह रूपी चार संज्ञाओं से पीड़ित होते हैं । इसमें सम्यक्त्व का स्वरूप और महिमा बताई है। सम्यक्त्व की प्राप्ति पाँच लब्धिपूर्वक होती है। संज्ञी तिर्यंच पशु भी सम्यक्त्व के अधिकारी हैं। सम्यक्त्वपूर्वक निरतिचार अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत और सल्लेखना उपादेय है । पक्ष, चर्या और साधन के आधार पर श्रावकों के तीन भेद हैं - पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक। यह देश संयम की तीन अवस्थाओं का सूचक है जिसका वर्णन आगामी अध्यायों में किया है। दूसरे अध्याय में 87 श्लोकों में पाक्षिक श्रावक के आचार-विचार और कर्तव्यों का वर्णन है। पाक्षिक का अर्थ है - साधारण श्रावक अर्थात् अव्रति श्रावक। सम्यक्त्वपूर्वक पाक्षिक श्रावक अष्टमूल गुण अर्थात् मद्य, मांस, मधु और पाँच उदम्बर फलों का त्यागी होता है। रात्रि भोजन और बिना छना जल पीना वर्जित है । जीवों पर दया तथा पंचपरमेष्ठी में भक्ति ये श्रावक के मूलगुण हैं। इसमें जैन दीक्षा का विधान भी दर्शाया है।” श्रावक के आवश्यक कार्य हैं - देवपूजा, गुरु की सेवा-उपासना, पात्रों को दान देना तथा धर्म और यश बढ़ानेवाले कार्य, जैसे - स्वाध्यायशाला, भोजनशाला एवं औषधालय आदि का निर्माण।20 जन-साधारण के जीवन स्तर में सुधार हेतु पाक्षिक श्रावकों के कर्तव्यों का परिपालन उपयोगी है। तीसरा अध्याय नैष्ठिक (दार्शनिक) श्रावक से सम्बन्धित है । नैष्ठिक श्रावक की ही ग्यारह प्रतिमाएँ होती हैं । तीसरे अध्याय के 32 श्लोकों में पहली दर्शन प्रतिमा का वर्णन है। उत्तमलेश्या सहित दार्शनिक श्रावक तीन प्रकार के होते हैं - गृहस्थ, ब्रह्मचारी एवं भिक्षुक जो क्रमशः जघन्य, मध्यम और उत्तम श्रावक कहे जाते हैं । ये तीनों स्तर गृहस्थों
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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