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जैनविद्या - 22-23 पंचम अध्याय पिण्ड (भोजन) शुद्धि का है जिसमें 69 श्लोक हैं । इसमें आहारचर्या का विशद वर्णन करते हुए आहार के 46 दोषों अर्थात् 16 उद्गम दोष, 16 उत्पादन दोष और 14 अन्य दोषों का वर्णन किया है। इन दोषों से रहित आहार ही साधु को ग्राह्य है। दातार को नवधा भक्तिपूर्वक आहार देना चाहिये। द्रव्य से शुद्ध भोजन भी भाव से अशुद्ध होने पर अशुद्ध हो जाता है। अशुद्ध भाव बन्ध का कारण है और और शुद्ध भाव मोक्ष का कारण है । अत: द्रव्य शुद्धि के साथ भाव शुद्धि होना आवश्यक है।' मन-वचन-काय सम्बन्धी कृत-कारित-अनुमोदना से रहित आहार नव कोटि शुद्ध होता है, वही साधु को ग्राह्य है। उसी से आत्मस्वरूप की उपलब्धि होती है।” पिण्ड शुद्धि सम्बन्धी जिनाज्ञा का अनुपालन श्रावक और श्रमणों दोनों से अपेक्षित है।
छठे अध्याय का नाम 'मार्ग महोद्योग' है जिसमें 112 श्लोक हैं । इसमें उत्तमक्षमादि दशधर्म, अनित्यादि 12 भावनाएँ, बाइस परिषहजय आदि का वर्णन किया है। सातवाँ अध्याय 'तपाराधना' का है जिसमें 104 श्लोक हैं । इसमें बारह प्रकार के अंतर-बाह्य तपों .
और उनके भेद-प्रभेदों का वर्णन है जो मूलत: पठनीय/मननीय है। आठवें अध्याय का नाम 'आवश्यक नियुक्ति' है, जिसमें 134 श्लोक हैं। इसमें साधु के षटकर्म, यथा - सामायिक, स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग के स्वरूप तथा उनके भेदादिक का वर्णन है। अंत में कृतिकर्म का वर्णन है। वन्दना और कायोत्सर्ग के 3232 दोषों का वर्णन श्लोक 98 से 121 तक किया है। श्रमणाचार के लिए यह अधिकार बहुत महत्वपूर्ण और अनुपालनीय है।
नवम अधिकार में श्रमणों की निमित्त-नैमित्तिक क्रियाओं का वर्णन 100 श्लोकों में किया है। मोक्षमार्ग में स्वाध्याय तप की अहं भूमिका दृष्टिगत कर पण्डित जी ने स्वाध्याय कब और कैसे प्रारम्भ तथा समाप्त करना चाहिए इसका विवरण दिया है। साधु को प्रात:काल देव-वन्दनाकर छह प्रकार के कृतिकर्म करना चाहिये । पश्चात् दो घड़ी कम मध्याह्न तक स्वाध्यायकर आहारचर्या को जाना चाहिये। फिर प्रतिक्रमणकर मध्याह्न काल के दो घड़ी बाद से लेकर दिन डूबने के दो घड़ी पूर्व तक स्वाध्यायकर दैवसिक प्रतिक्रमण करना चाहिये। पश्चात् रात्रियोग ग्रहणकर आचार्य-वन्दना एवं देव-वन्दना करना चाहिये। दो घड़ी रात्रि व्यतीत होने पर अर्द्धरात्रि से दो घड़ी पूर्व तक पुनः स्वाध्याय करना चाहिये। स्वाध्याय न कर सकें तो देव-वन्दना करना चाहिये। नैमित्तिक क्रियाविधि में अष्टमी, चतुर्दशी, पक्षान्त, संन्यास, श्रुतपंचमी, अष्टाह्निका क्रिया विधि, वर्षायोग ग्रहण और त्याग विधि आदि आती है जिनमें यथायोग्य भक्तियों का प्रयोग होता है। पश्चात् आचार्य-पद प्रतिष्ठापन, आचार्य के 37 गुण, दीक्षाविधि, दीक्षा की पात्रता, केशलोंच विधि तथा साधुओं के अन्य मूलगुणों का वर्णन किया है। इस अध्याय के 26वें श्लोक में भगवान