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________________ जैनविद्या - 22-23 अप्रेल - 2001-2002 प्रज्ञापुञ्ज आशाधर - श्री रमाकान्त जैन 'अनागतं यः कुरुते सः शोभते' की उक्ति को चरितार्थ करनेवाले आशाधर कदाचित् पहले व्यक्ति थे जिन्होंने गृहस्थ रहकर धर्मशास्त्र पर साधिकार अपनी लेखनी चलाई। उनके पूर्व इस विषय पर कुछ चर्चा करने, लेखनी चलाने का कार्य गृह-त्यागी मुनि, आचार्य आदि ही सम्पन्न करते आ रहे थे। आशाधर के समकालीन कविसुहृद उदयसेन मुनि ने इनकी प्रशस्ति निम्नवत की थी - व्याघ्ररवालवरवंशसरोजहंसः काव्यामृतोघरसपानसुतृप्तगात्रः। सल्लक्षणस्य तनयो नयविश्वचक्षुराशाधरो विजयतां कलिकालिदासः॥ भावार्थ - श्रेष्ठ बघेरवाल वंश के सरोज और हंस, सल्लक्षण के पुत्र आशाधर जिनका गात्र काव्यरूपी अमृत के प्रभूत रसपान से सुतृप्त है, जो नयविश्वचक्षु (विश्व को नय शास्त्र समझानेवाले) और कलिकालिदास (प्रसिद्ध संस्कृत कवि कालिदास के कलियुगीन रूप) हैं, विजय हों। और मालवराज श्री विन्ध्यवर्मा के महासन्धिविग्रहिक विद्वान कवीश विल्हण ने इनके काव्य की प्रशंसा करते हुए कहा था -
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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