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जैनविद्या - 22-23 आशाधर त्वं मयि विद्धि सिद्धं निसर्गसौन्दर्यमजर्यमार्यम्।
सरस्वतीपुत्रतया यदेतदर्थे परं वाच्यमयं प्रपञ्चः॥ भावार्थ - सरस्वती-पुत्र होने के नाते मुझमें यह परम वाच्य प्रपञ्च (वाग्विदग्धता) स्फुरित होकर आशाधर के अनुरूप अजर, आर्य और नैसर्गिक सौन्दर्य से युक्त यह काव्य रचना करने की सिद्धि प्राप्त हुई।
इस प्रकार सराहनाप्राप्त कवि आशाधर बहुज्ञ और बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने लौकिक और धार्मिक विविध विषयों से सम्बन्धित पूर्व रचित ग्रन्थों का सम्यक् अध्ययन कर उन पर साधिकार अपनी लेखनी चलाई थी और अनेक कृतियों का प्रणयन किया था।
उनकी उपलब्ध कृतियों में से चार कृतियों - जिनयज्ञकल्प सटीक, त्रिषष्ठिस्मृति पञ्जिका, सागार धर्मामृत टीका और अनगार धर्मामृत टीका - के अन्त में विशद प्रशस्तियाँ अंकित हैं जिनसे कृतिकार के समय, उसके परिवार, उसकी कृतियों और उसके सहयोगियों आदि का काफी कुछ परिचय प्राप्त हो जाता है और उनके सम्बन्ध में ऊहापोह करने से हम बच जाते हैं । कालक्रमानुसार 'जिनयज्ञकल्प सटीक' की रचना विक्रम संवत् 1285 (ईस्वी सन् 1228) में आश्विन मास की पूर्णिमा को; त्रिषष्टिस्मृति पञ्जिका' की रचना विक्रम संवत् 1292 (ई.सं. 1235) में; 'सागार धर्मामृत टीका' की रचना वि.सं. 1296 (ई.सं. 1239) में पौष कृष्णा सप्तमी को तथा 'अनगार धर्मामृत टीका' की रचना वि.सं. 1300 (ई.सं. 1243) में कार्तिक मास में पूर्ण हुई थी। ये सभी कृतियाँ मालवराज्यान्तर्गत नलकच्छपुर (नालछा, जो धारा नगरी से 10 कोस पर स्थित है) के नेमिनाथ चैत्यालय में रची गई थीं, कदाचित् यह चैत्यालय उनका स्वयं का रहा होगा। केवल 'जिनयज्ञकल्प सटीक' की रचना के समय परमारवंशीय राजा देवपाल अपरनाम साहसमल्ल उस प्रदेश में सिंहासनारूढ़ था और शेष तीन की रचना उसके पुत्र जैतुगिदेव के राज्यकाल में हुई।
इन कृतियों की प्रशस्तियों के श्लोक 1 व 2 में आशाधर के स्थान, परिवार और कुल धर्म का परिचय निम्नवत दिया हुआ है -
श्रीमानस्ति सपादलक्षविषयः शाकम्भरीभूषणस्तत्र श्रीरतिधाम मण्डलकरं नामास्ति दुर्ग महत्। श्री रल्यामुदपादि तत्र विमलव्याघेरवालान्वयाछ्रीसल्लक्षणतो जिनेन्द्रसमयश्रद्धालुराशाधरः॥1॥ सरस्वत्यामिवात्मानं सरस्वत्यामजीजनन् । यः पुत्र छाहडं गुण्यं रंजितार्जुन भूपतिम् ॥2॥