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________________ 6 जैनविद्या - 22-23 संवत् की 13वीं शती में हुआ होगा । मेरे इस कथन की पुष्टि पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, पं. नाथूराम प्रेमी, पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री, शान्तिकुमार ठवली प्रभृति विद्वानें की मान्यता से होती है 28 कृतियाँ पं. आशाधर ने धारा नगरी छोड़कर नालछा आने के पश्चात् साहित्य-सृजन कार्य आरम्भ किया। कृतियों की रचना, साहित्य सेवा, जिनवाणी की सेवा एवं उपासना को जीवन का केन्द्र बनाया । आशाधर का अध्ययन अगाध और अभूतपूर्व था । यही कारण है कि उन्होंने संस्कृत भाषा में न्याय, व्याकरण, काव्य, अलंकार, अध्यात्म, पुराण, शब्दकोश, धर्मशास्त्र, योगशास्त्र वैद्यक (आयुर्वेद), ज्योतिष आदि विषयों से सम्बन्धित विपुल ग्रन्थों की रचना कर जैनवाङ् मय को समृद्ध करने में अभूतपूर्व योगदान किया। शान्तिकुमार ठवली के अनुसार आशाधर ने 108 ग्रन्थों की रचना की थी। वे लिखते हैं कि “उनकी एक सौ आठ रचनाओं का पता चला है। और भी न मालूम कितनी रचनाएँ नष्ट व अज्ञात रही हैं। ज्ञात रचनाओं में प्रथमानुयोग की 11, करणानुयोग की 4, चरणानुयोग की 11, द्रव्यानुयोग की 8 विशेष हैं तथा पूजन, विधान, भक्ति, प्रतिष्ठा टीका आदि 70 ग्रन्थ उपलब्ध हैं और अष्टांगहृदय संहिता, शब्द त्रिवेणी, जैनेन्द्र प्रवृत्ति, काव्यालंकार टीका आदि का उल्लेख तथा पता भी मिलता है 29 ।" लेकिन ठवली ने अपने कथन में किसी प्रमाण का उल्लेख नहीं किया है। पं. आशाधर ने जिनयज्ञकल्प, सागार धर्मामृत टीका और अनागार धर्मामृत टीका की प्रशस्तियों में अपने ग्रन्थों का उल्लेख किया है तथानुसार उनके द्वारा रचित ग्रन्थ निम्नांकित हैं — (अ) जिनयज्ञकल्प की प्रशस्ति में उल्लिखित ग्रन्थ - जिनयज्ञकल्प की प्रशस्ति के अनुसार यह ग्रन्थ वि.सं. 1285 में पूरा हुआ था । इसमें इसके पूर्व में लिखे गए ग्रन्थों का उल्लेख है कि जो निम्नांकित हैं - 1. प्रमेयरत्नाकर - पं. आशाधर ने स्याद्वाद विद्या का विशद प्रसाद कहा है। यह तर्कशास्त्र - विषयक ग्रन्थ है। इसकी रचना पद्यों में की गई थी। पं. आशाधर ने कहा है कि इसमें निर्दोष विद्यामृत का प्रवाह बहता है । यह ग्रन्थ अनुपलब्ध है । इसकी प्रति सोनागिरी में होने का उल्लेख विद्वानों ने किया है। 31 2. भरतेश्वराभ्युदय काव्य - इसे आशाधर ने सिध्यंक भी कहा है; क्योंकि इसके प्रत्येक सर्ग के अन्तिमवृत में 'सिद्धि' शब्द का प्रयोग हुआ है । इस सत्काव्य में भरत चक्रवर्ती के जीवनवृत्त विशेषकर मोक्ष प्राप्ति का वर्णन रहा होगा। क्योंकि यह काव्य अध्यात्मरस से युक्त था । प्रस्तावना से यह भी ज्ञात होता है कि कवि ने इसकी रचना अपने कल्याण के लिए की थी। इस पर उन्होंने टीका भी की थी। दुर्भाग्य से आज वह उपलब्ध नहीं है। इसकी पाण्डुलिपि सोनागिरि में मौजूद है ।
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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