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________________ 130 जैनविद्या - 22-23 मधुकृदवातघातोत्थं मध्वशुच्यपि बिन्दुशः। खादन् बध्नात्यघं सप्तग्रामदाहाहंसोऽधिकम्॥2.11॥ पण्डितजी कहते हैं कि वस्त्रकर्म, पिंडदान, नेत्रों में अंजन लगाना तथा मुँह में मकड़ी आदि के चले जाने पर इलाज करना आदि कार्यों के लिए भी मद्य, मांस और मधु का उपयोग कभी नहीं करना चाहिए। इतना ही नहीं, किसी तरह का फूल नहीं खाना चाहिए किन्तु महुआ और भिलावे जिन्हें अच्छी तरह से शोध सकते हैं तथा नागकेसर आदि के सूखे फलों के खाने का अत्यन्त निषेध नहीं है। यथा - प्रायः पुष्पाणि नाश्नीयान्मधुव्रत विशुद्धये। वस्त्यादिष्वपि मध्वादिप्रयोगं नार्हति व्रती॥ 3.13॥ पण्डित आशाधरजी मक्खन व लौनी को भी अभक्ष्य पदार्थ मानते हैं क्योंकि इसमें दो मुहूर्त अर्थात् चार घड़ी (लगभग डेढ़ घण्टा) के बाद निरन्तर अनेक सम्मूर्छन जीव उत्पन्न होते तथा मरते रहते हैं । अस्तु, यह भी सर्वथा त्याज्य है। यथा - मधुवन्नवनीतं च मुंचेत्तत्रापि भूरिशः। द्विमुहूर्तात्परं शश्वत्संसजन्त्यङ्गिराशयः ॥ 2.12॥ पण्डितजी अचार, मुरब्बा, दही-बड़ा, कांजीबड़ा, दो दिन-रात से अधिक का दहीछाछ को भी अभक्ष्य की कोटि में गिनाते हैं क्योंकि इनमें अनन्त जीव उत्पन्न होते रहते हैं। यथा - संधानकं त्यजेत्सर्वं दधि तक्रं व्यहोषितम्। काञ्जिकं पुष्पितमपि मद्यव्रतमलोऽन्यथा॥ 3.11 ।। पण्डित आशाधरजी श्रावकों को भक्ष्य भोजन भी कब करना चाहिए इसकी भी सविस्तार तर्कपूर्ण चर्चा करते हैं। उनके अनुसार श्रावकों को अपने आश्रितों को भोजन कराने और निराश्रित लोगों को करुणाबुद्धि से दान देने के उपरान्त ही दिन में ही भोजन करना चाहिए। पण्डितजी पाक्षिक श्रावक के लिए कहते हैं कि रात्रि में केवल जल, औषधि, पान, सुपारी, इलायची, जायफल, कपूर आदि मुख शोधन करनेवाले पदार्थों का सेवन कर सकते हैं। पर जो लोग रात में पेड़ा, बरफी, रबड़ी आदि का सेवन करते हैं वह बिल्कुल शास्त्रविरुद्ध है। यथा - भृत्वाऽऽश्रितानवृत्याऽऽर्तान् कृपयाऽनाश्रितानापि। भुञ्जीतान्ह्यम्बु-भैषज्यतांबूलैलादि निश्यपि ॥ 2.76॥
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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