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________________ जैनविद्या - 22-23 129 नहीं है तो मांस-भक्षण करने में भी दोष नहीं होना चाहिए। क्योंकि अन्न के समान मांस भी प्राणियों का अंग है। इस कुतर्क का खण्डन करते हुए पण्डितजी कहते हैं कि - प्राण्यंगत्वे समेऽप्यन्नं भोज्यं मांसं न धार्मिकैः। भोग्या स्त्रीत्वाविशेषेऽपि जनैर्जायैव नाम्बिका। 2.10॥ अर्थात् – यद्यपि मांस और अन्न दोनों ही प्राणी का अंग है तथापि मांस, लोह, मज्जा आदि विकारों से उत्पन्न होता है जबकि गेहूँ, उड़द आदि धान्य एकेन्द्रिय जीव तो हैं परन्तु उनमें रक्त-मज्जा आदि का अभाव है। अस्तु, एकेन्द्रिय जीवों के शरीर को मांस नहीं कह सकते । उदाहरण के लिए नीम को वृक्ष कह सकते हैं परन्तु इस धरती पर जितने भी वृक्ष हैं, उन सबको नीम नहीं कह सकते। इसलिए अन्न जीव का शरीर होकर भी मांस की कोटि में नहीं आ सकता और न इसके खाने में कोई दोष है। ऐसे ही पुरुष स्त्री का उपभोग करता है पर केवल अपनी पत्नी का ही उपभोग कर सकता है माता का नहीं। इसी तरह धान्य ही भक्ष्य है, मांस नहीं। अपने कथन की पुष्टि में पण्डितजी कहते हैं कि एक ही स्थान पर उत्पन्न होनेवाली दो वस्तुओं के स्वभाव में बड़ा अन्तर होता है। जैसे - गाय का दूध भक्ष्य है परन्तु उसका मांस अभक्ष्य है। इसी प्रकार रत्न और विष दोनों ही सर्प में उत्पन्न होते हैं । रत्न विष का नाश करनेवाला और विष प्राणों का नाश करनेवाला है। ऐसे ही एक ही जल-मिट्टी से उत्पन्न होनेवाले वृक्ष के पत्ते आयुवर्धक हैं और उसकी ही जड़ आयु को नाश करनेवाली है। पण्डितजी उन पदार्थों को भी अभक्ष्य मानते हैं जो चमड़े के बर्तन में रखे हुए हों या जिनमें चमड़े का स्पर्श हो, जैसे - चमड़े के बर्तन में रखा हुआ जल, घी, तेल, अन्न, नमक आदि; चमड़े में लपेटी हुई या रखी हुई हींग और जो स्वाद से चलित हो गए ऐसे घी आदि समस्त पदार्थ । यथा - चर्मस्थमम्भः स्नेहश्च हिंग्वसंहृत चर्म च। सर्वं च भोज्यं व्यापन्नं दोषः स्यादामिषव्रते। 3.12॥ पण्डित आशाधरजी मधु (शहद) को भी अभक्ष्य की कोटि में मानते हैं क्योंकि मधु (शहद) भ्रमर, डांस, मधुमक्खियों आदि प्राणियों के विनाश होने से उत्पन्न होता है। इसमें हर समय जीवों की उत्पत्ति बनी रहती है। शहद मधुमक्खी के गर्भ से उत्पन्न होता है और छोटे-बड़े अण्डे-बच्चों को दबाकर निचोड़ने से निकलता है। यह शहद मधुमक्खी आदि प्राणियों की झूठन है, वमन है। इस प्रकार शहद या मधु बहुत अपवित्र है, अभक्ष्य है। इसकी एक बूंद खानेभर से व्यक्ति को सात गाँव जलाने के पाप से भी अधिक पाप लगता है तो एक से अधिक बूंद का सेवन करनेवाले को निश्चय ही महापाप लगेगा। इसलिए श्रावक को शहद सेवन कभी भी नहीं करना चाहिए। यथा -
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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