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________________ जैनविद्या - 22-23 131 पण्डितजी इस बात पर बल देते हैं कि भोजन सदा सूर्योदय रहते ही करना चाहिए अर्थात् सूर्योदय से दो घड़ी पूर्व और सूर्यास्त होने में शेष बची दो घड़ी में भोजन नहीं करना चाहिए। वे कहते हैं कि एक दर्शनिक श्रावक को रोग दूर करने के लिए आम, चिरौंजी, दालचीनी आदि फल, घी, दूध, ईक्षुरस आदि रस लेने का भी निषेध है अर्थात् हर प्रकार से रात्रिभोजन दोषयुक्त है। यथा - मुहूर्तेऽन्त्येतथाऽऽद्येऽस्तो वल्भानस्तमिताशिनः। गदच्छिदेऽप्याम्रघृताधुपयोगश्च दुष्यति ॥ 3.15॥ दिन की अपेक्षा रात्रि में भोजन करने में विशेष राग होता है, अधिक जीवों का घात होता है और जलोदर आदि अनेक रोग भी हो जाते हैं । पण्डित आशाधरजी तो यहाँ तक कहते हैं कि ये सारे दोष बिना छने पानी पीने में भी लगते हैं। पानी का अर्थ है पीने योग्य तरल पदार्थ । जैसे - पानी, घी, तेल, दूध, रस आदि। यथा - रागजीवबधापाय भूयस्त्वात्तद्वदुत्सृजेत्। रात्रिभक्तं तथा युज्यान्न पानीयमगालितं ॥ 2.14॥ पण्डितजी रात्रिभोजन करनेवालों को वक्रोति के माध्यम से तिरस्कार करते हुए कहते हैं कि - जलोदरादि-कृकाद्यङ्कमप्रेक्ष्यजंतुकम्। प्रेताधुच्छिष्टमुत्सृष्टमप्यश्नन्निश्यहो सुखी॥4.25॥ अर्थात् - जो रात्रि में भोजन करते हैं वे अनके प्रकार के रोगों से ग्रस्त रहते हैं, जैसे - भोजन के साथ खा जाने से जलोदर रोग, कोलिक खा जाने से कुष्ट (कोढ़) रोग, मक्खी खा जाने से वमन, मुद्रिका खा जाने से मेदा को हानि, भोजन में बिच्छू मिल जाने पर तालु रोग, काँटा या लकड़ी का टुकड़ा-बुरादा भोजन के साथ चले जाने पर गले में रोग, भोजन में बाल मिल जाने पर स्वरभंग आदि अनेक दोष रात्रि में खाने से प्रत्यक्ष रूप से दिखाई पड़ते हैं। इसके साथ ही बहुत से सूक्ष्म जीव जो अंधकार में दिखाई नहीं पड़ते हैं भोजन में मिल जाने पर अनेक रोगों और हिंसादि पाप बन्ध का कारण बनता है। इतना ही नहीं, पण्डित आशाधरजी आगे यह भी कहते हैं कि रात्रि में भोजन बनाने में भी षड्काय जीवों का हनन होता है। चाहे रात्रि का बना हुआ भोजन दिन में ही क्यों न खाया जाए। इसके अतिरिक्त रात्रि में पिशाच-राक्षस आदि निम्न कोटि के व्यंतरदेव घूमते रहते हैं। उनके स्पर्श कर लेने से भोजन अभक्ष्य हो जाता है जिसे रात्रि में खानेवाले बड़े चाव से खाते हैं। पण्डितजी कहते हैं कि रात्रि में भोजन करनेवाले को अनेक दोष लगते हैं। अतः अहिंसाणुव्रत की रक्षार्थ एक व्रती श्रावक को जीवनपर्यन्त मन, वचन, काय से रात्रि में
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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