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________________ जैनविद्या - 22-23 ___ कर्मभूमि - अपनी विद्या-भूमि धारानगरी में पं. आशाधर जैन एवं जैनेतर समस्त साहित्य का अध्ययन कर बहुश्रुत हो गए थे। इसके पश्चात् धारा को छोड़कर नालछा आ गए। आखिर क्यों? यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि उस समय 'धारानगरी' काशी की तरह विद्या का केन्द्र थी। पं. नाथूराम प्रेमी का कहना है कि उस नगरी के सभी राजा - भोजदेव, विन्ध्य वर्मा, अर्जुन वर्मा केवल विद्वान ही न थे बल्कि विद्वानों का सम्मान भी करते थे। 'पारिजात मञ्जरी' में महाकवि मदन ने लिखा है कि धारानगरी को चौरासी चौराहे पर विभिन्न दिशाओं से आनेवाले विभिन्न विषयों के विद्वानों, पंडितों और कलाकोविदों की भीड़ रहती थी। वहाँ की 'शारदा-सदन विद्यापीठ' की ख्याति दूर-दूर तक व्याप्त थी। इस प्रकार की विद्यास्थली धारानगरी को छोड़ने का निर्णय करके नालछा (नलकच्छपुर) के लिए प्रस्थान करने का निर्णय आश्चर्यजनक प्रतीत होता है। इनकी प्रशस्ति से उपर्युक्त जिज्ञासा का समाधान हो जाता है । उन्होंने स्वयं लिखा है कि जैन शासन की प्रभावना (धर्माराधना, पठन-पाठन) के लिए उन्होंने धारानगरी छोड़ी। नालछा उस समय जैन धर्म से सम्पन्न श्रावकों से व्याप्त था। अर्जुन वर्मा का राज था। अत: धारा से दस कोश की दूरी पर स्थित नालछा नगर को इन्होंने अपनी कर्मभूमि बनाया। वे नालछा में लगभग 35 वर्षों तक रहे। यहाँ के नेमिचैत्यालय में जैन शास्त्रों का पठन-पाठन, साहित्य-सृजना आदि करते हुए जैन धर्म की प्रभावना की। शिष्य-सम्पदा - पं. आशाधर की शिष्य-सम्पदा प्रचुर थी। इनके विद्याभ्यास समाप्त होते-होते इनकी विद्वत्ता की कीर्ति चतुर्दिक व्याप्त हो गई थी। इनकी अभूतपूर्व प्रतिभा ने श्रावकों के अतिरिक्त अनेक मुनियों और जैनेतरों को आकर्षित किया था। अपने शिष्यों को ऐसा ज्ञान कराया कि व्याकरण, काव्य, न्यायशास्त्र और धर्मशास्त्र में उन्हें कोई विपक्षी जीत नहीं सकता था। प्रशस्ति में उन्होंने स्वयं कहा है - "सुश्रूषा करनेवाले शिष्यों में ऐसे कौन हैं जिन्हें आशाधर ने व्याकरणरूपी समुद्र के पार शीघ्र ही न पहुँचा दिया हो। ऐसे कौन हैं जिन्होंने आशाधर के षटदर्शनरूपी परमशास्त्र को लेकर अपने प्रतिवादियों को न जीता हो, आशाधर से निर्मल जिनवाणीरूपी दीपक ग्रहण करके जो मोक्ष-मार्ग में प्रबुद्ध न हुए हो और ऐसा कौन है जिसने आशाधर से काव्यामृत का पान करके उससे पुरुषों में प्रतिष्ठा न प्राप्त की हो??" उपर्युक्त कथन से सिद्ध है कि उनके शिष्य उन्हीं के समान अपने-अपने विषय के निष्णात विद्वान थे। उनके शिष्यों में निम्नांकित शिष्य प्रमुख एवं उल्लेखनीय हैं18-- पं. देवचन्द्र - इन्हें आशाधर ने व्याकरण शास्त्र में निष्णात विद्वान बनाया था। वादीन्द्र, विशालकीर्ति आदि - इन्हें षडदर्शन एवं न्यायशास्त्र पढ़ाकर विपक्षियों को जीतने में समर्थ ज्ञाता बनाया। चतुर्दिक के वादियों को जीतकर इन्होंने महाप्रमाणिक चूडामणि की उपाधि प्राप्त की थी।
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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