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________________ जैनविद्या - 22-23 'सागार धर्मामृत' और 'अनागार धर्मामृत' नामक ग्रन्थों की प्रशस्तियों में अपनी जन्मभूमि, जन्मकाल, माता-पिता, विद्या-भूमि, कर्मभूमि आदि के सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी दी। इन्हीं प्रशस्तियों के आधार पर उनका जीवन-वृत्त प्रस्तुत करना समुचित है - जन्मभूमि - पं. आशाधर की जन्मभूमि के सम्बन्ध में कोई विवाद नहीं है। प्रशस्ति के अध्ययन से ज्ञात होता है कि शांकभरी (सांभरझील) के भूषणरूप सपादलक्षदेश के अन्तर्गत मण्डलकर दुर्ग (मेवाड़) नामक देश अर्थात् स्थान को पं. आशाधर ने पवित्र किया था । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि वर्तमान में राजस्थान का माण्डलगढ़ (दुर्ग) जिला भीलवाड़ा में पं. आशाधर का जन्म हुआ था। ___ माता-पिता एवं वंश - 'सागार धर्मामृत' की प्रशस्ति में उल्लेख मिलता है कि जैनधर्म में श्रद्धालु भक्त सल्लक्षण पं. आशाधर के पिता थे और माता का नाम श्री रत्नी था। पं. आशाधर के पिता को राजाश्रय प्राप्त था। पं. आशाधरजी का जन्म राजपूताने की प्रसिद्ध वैश्य जाति व्याघेरवाल या वघेरवाल जाति में हुआ था। ___ पारिवारिक स्थिति - पं. आशाधर का विवाह हुआ था। अत्यधिक सुशील एवं सुशिक्षित सरस्वति नामक महिला को पं. आशाधर की पत्नी होने का सौभाग्य मिला था। इनके छाहड़ नामक एक पुत्र था, जिसने अपने गुणों के द्वारा मालवा के राजा अर्जुन वर्मा को प्रसन्न किया था। पंडित नाथूराम प्रेमी के मतानुसार सल्लक्षण के समान इनके बेटे छाहड़ को अर्जुन वर्मा देव ने कोई राज्यपद दिया होगा, क्योंकि अक्सर राजकर्मचारियों के वंशजों को परम्परा से राजकार्य मिलते रहते हैं। उपर्युक्त उल्लेख से सिद्ध होता है कि पं. आशाधर का कुल सुसंस्कृत राजमान्य था। भाई-बन्धु - उपलब्ध प्रशस्ति में यह उल्लेख नहीं मिलता है कि पं. आशाधर के कोई बन्धु था। पं. प्रेमचन्द डोणगांवकर 'न्यायतीर्थ' के अनुसार इनके वाशाधर नामक बन्धु होने का दो जगह उल्लेख हुआ है। वाशाधर ने 1239 में भट्टारक नरेन्द्रकीर्ति के उपदेश से काष्ठासंघ में प्रवेश किया था। शिक्षा एवं गुरु परम्परा - पं. आशाधर की प्रारम्भिक शिक्षा कहाँ हुई इसका कहीं उल्लेख नहीं मिलता। इनका बचपन माण्डलगढ़ में बीता था। संभव है यहीं पर इन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा पाई हो। वि.सं. 1249 में जब आशाधर 19 वर्ष के हुए तो उस समय मुसलमान राजा शहाबुद्दीन द्वारा सपादलक्ष देश पर आक्रमण किया गया था और वहाँ उसका राज्य हो गया था। इसके राज्य में जैन यतियों पर उपद्रव होने लगा था। जैन धर्मानुसार आचरण करना कठिन हो गया था। जैन धर्म पर आघात होने और उसकी क्षति होने के कारण ये अपना जन्म-स्थान छोड़कर सपरिवार मालवा माण्डल की धारापुरी नामक नगरी में आ गए थे। उस समय वहाँ विंध्य वर्मा राजा थे। यहीं पर रहकर आशाधर ने वादिराज के शिष्य पं. धरसेन और इनके शिष्य पं. महावीर से जैन धर्म-न्याय और जैनेन्द्र व्याकरण पढ़ा था।
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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