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________________ 102 जैनविद्या - 22-23 का अधिकांश समय स्वाध्याय, सामायिक तथा आत्मचिन्तन आदि में ही व्यतीत होता है। वह अपने नैत्यिक भोजन भी अपने घर अथवा बाहर किसी साधर्मी बन्धु के यहाँ से निमंत्रण मिलने पर ही स्वीकारता है। इस विकास यात्रा पर पहुँचा हुआ साधक प्रायः अपने घर में न रहकर मन्दिरजी अथवा चैत्यालय आदि एकान्त, शान्त स्थान में ही रहता है। 11. उद्दिष्ट-त्याग प्रतिमा उपर्युक्त दश प्रतिमाओं का साधक/श्रावक जब अपने निमित्त तैयार किये हुए भोजन का सर्वथा त्याग कर देता है तब वह उसे ग्यारहवीं प्रतिमाधारी उद्दिष्ट त्यागी कहा जाता ग्यारहवीं प्रतिमा का धारी श्रावक/साधक सर्वथा गृहत्यागी हो जाता है। वह मुनिजनों का सान्निध्य प्राप्त करता है। मुनियों के आहार के लिए निकलने के बाद ही चर्या के लिए निकलता है। भक्ति तथा विधिपूर्वक आहार दिये जाने पर दिन में एक बार भोजन ग्रहण करता है, शेष समय को मुनिवृन्दों की सुश्रूषा तथा वैयावृत्ति में व्यतीत करता है। ऐसा सुधी साधक नित्य और नियमित स्वाध्याय करता है। ___ 'उद्दिष्ट त्यागप्रतिमा' का अनुपालक श्रावक/साधक को चर्या-भेद से दो अनुभागों में विभक्त किया गया है, यथा - 1. क्षुल्लक 2. ऐलक क्षुल्लक किसी एक पात्र में भोजन ग्रहण करता है जबकि ऐलक करपात्री होता है। ऐलक केशलोंच' करता है जबकि क्षुल्लक के लिए केशलोंच करना आवश्यक नहीं है। ऐलक मात्र एक लँगोटी ही धारण करता है जबकि क्षुल्लक एक लँगोटी के साथ एक ऐसा खण्ड वस्त्र जिससे शिर ढकने पर पैर न ढके और पैर ढक जाने पर शिर न ढकने पाये, भी रखता है। .. इन प्रतिमाओं के अनुपालन के लिए पुरुष की भाँति नारी के लिए भी द्वार खुले हुए हैं । पुरुष कहलाता है श्रावक और नारी कहलाती है - श्राविका। श्राविका ग्यारह प्रतिमाएँ धारणकर अपने पास मात्र एक श्वेत साड़ी और एक श्वेत खण्डवस्त्र रखती है। श्राविका तब क्षुल्लिका कहलाती है और वह एक पात्र में भोजन ग्रहण करती है। __ ये एकादश प्रतिमाएँ एक के बाद दूसरी और दूसरी के बाद तीसरी इस प्रकार अनुक्रम से पालन की जाती हैं। अनुक्रम से पालने का प्रयोग और प्रयोजन सार्थक है। इस भवभ्रमणकारी जीव के अनादि काल से विषय-वासनाओं का जो अभ्यास हो रहा है उससे उत्पन्न असंयम का एक साथ छूटना प्रायः सम्भव नहीं हो पाता अतः उसे छोड़ने के लिए अनुक्रम पद्धति का प्रयोग सर्वथा सार्थक और प्रासंगिक है।
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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