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________________ 93 जैनविद्या - 22-23 पदभंजिका। पूर्ण श्लोक की अपेक्षा कुछ पदों का विश्लेषण ही 'पंजिका' है। टीका और पंजिका का वैशिष्ट्य यह है कि प्रथम यदि मूल श्लोकों की व्याख्या करती है, तो द्वितीय मूल में लागत विषयों को विशेष रूप से स्पष्ट करने तथा तत्सम्बद्ध अन्य आवश्यक जानकारी देने के लिए ग्रन्थान्तरों से उद्धरण उपन्यस्त करती है। इस प्रकार, मूलग्रन्थ से भी अधिक इसकी टीकाओं का महत्त्व है। दिगम्बर जैन-परम्परा के साधुवर्ग और गृहस्थवर्ग में जिस आचार-धर्म का पालन किया जाता है, उसकी जानकारी के लिए आचार्यकल्प पं. आशाधर का 'धर्मामृत' एक कालोत्तीर्ण कृति है। जैन परम्परा और प्रवृत्ति के इस मर्मज्ञ मनीषी ने जैनाचार से सम्बद्ध पूर्ववर्ती समग्र आकर-साहित्य का तलस्पर्शी अध्ययन किया था, जिसे उन्होंने अपने 'धर्मामृत' में प्रामाणिक, विश्वसनीय और सुव्यवस्थित रीति से उपस्थापित किया है। पं. आशाधर ने गृहत्यागी साधु के लिए 'अनगार' और गृहस्थ श्रावक के लिए 'सागार' शब्द का प्रयोग किया है । ये दोनों ही शब्द पूर्वाचार्य-सम्मत हैं । पं. आशाधर के 'धर्मामृत' में इन्हीं दोनों के धर्म वर्णित हैं। 'अनगार' और 'सागार' की विवेचना में 'तत्त्वार्थसूत्र' की टीका 'सर्वार्थसिद्धि' में कहा गया है कि 'अगार' का तात्पर्य भावागार से है। मोहवश घर से जिसका राग नहीं मिटा है, वह वन में रहते हुए भी 'सागार' या 'अगारी' है और जिसका राग मिट गया है, वह शून्यगृह आदि में रहने पर भी 'अनगार' या 'अनगारी' है। 'अनगार' साधु पाँच महाव्रतों - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पूर्ण रूप से पालन करते हैं। ये दिगम्बर परम्परा के 'अनगार' अपने लिए केवल दो उपकरण रखते हैं - त्रसजीवों की रक्षा के लिए मोरपंख से निर्मित 'पिच्छी' और शौच आदि के लिए 'कमण्डलु'। ये शरीर से सर्वथा नग्न रहते हैं और श्रावक के घर पर ही दिन में एकबार, खड़े होकर, हाथों की अंजलि को पात्र बनाकर भोजन लेते हैं। ___ पं. आशाधरजी के विचारों में श्रुत-परम्परा की स्वीकृति अवश्य है, पर उनमें मौलिकता भी है। उन्होंने धर्म को ही अमृत कहा है। अमृत के विषय में यह पारम्परिक मान्यता है कि वह अमरता प्रदान करता है। 'अमृत' का अर्थ भी अमरता (अ-मृत) से जुड़ा हुआ है। परन्तु अमरता देनेवाली 'अमृत' नाम की किसी वस्तु की सत्ता का सर्वथा अभाव है। दार्शनिक जगत् के प्रायः सभी अनुसन्धाता परलोक के अस्तित्व और आत्मा के अमरत्व के विषय में प्रायः एकमत हैं। केवल एक चार्वाक दर्शन ही परलोक और परलोकी को नहीं मानता। इसके अतिरिक्त, शेष सभी भारतीय दर्शन यह स्वीकार करते हैं कि अमुक मार्ग का अवलम्बन करने से आत्मा जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा पाकर शाश्वत स्थिति को प्राप्त करता है। अवश्य ही वह मार्ग धर्म-रूप मार्ग है। चूँकि धर्म
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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