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________________ जैनविद्या - 22-23 94 रूप मार्ग के अनुसरण, अर्थात् धर्म के आचरण से अमरत्व प्राप्त होता है, इसीलिए पं. आशा ने धर्म को अमृत कहा है। इस सन्दर्भ में उनका (अनगार धर्मामृत का ) यह श्लोक द्रष्टव्य है - अथ धर्मामृतं पद्यद्विसहस्त्रया दिशाम्यहम् । निर्दुःखं सुखमिच्छन्तो भव्याः शृणुतधीधनाः ॥ 1.6 ॥ " पं. आशाधर कहते हैं हूँ । दुःख से रहित सुख के अभिलाषी, बुद्धि के धनी भव्य जीव उसे सुनें ।' - अब मैं दो हजार पद्यों में 'धर्मामृत' ग्रन्थ का कथन करता इस पद्य में प्रयुक्त 'धर्मामृत' शब्द का विशेषार्थ बताते हुए पं. आशाधर अपनी टीका में कहते हैं - धर्म ( शुभ परिणामों से आगामी पाप -बन्ध को रोकने और पूर्वार्जित कर्म की निर्जरा करने या फिर जीव या आत्मा के नरक आदि गतियों से निवृत्त होकर सुगति में जाने का माध्यम) अमृत के तुल्य होता है; क्योंकि जो धर्म का आचरण करते हैं, अजर-अमर पद को प्राप्त करते हैं । इस शास्त्र में उसी धर्म का कथन है, इसलिए इसका नाम 'धर्मामृत' दिया गया है। इस शास्त्रीय विवेचन से ग्रन्थ की संज्ञा भी सार्थक होती है । पं. आशाधर ने धर्म को पुण्य का और अधर्म को पाप का जनक बताया है। उन्होंने सुख और दुःख से निवृत्ति के प्रयासों को दो पुरुषार्थ कहे हैं, जिनका कारण धर्म है (अन.ध.22)। उनका यह मन्तव्य तर्कपूर्ण है कि धर्म के आचरण से सुख की प्राप्ति और दुःख की निवृत्ति होती है। किन्तुः एकमात्र सांसारिक सुख की प्राप्ति की भावना से किये गये धर्माचरण से सांसारिक सुख की प्राप्ति निश्चित नहीं है, किन्तु मुक्ति की भावना से किये गये धर्माचरण से सांसारिक सुख अवश्य ही प्राप्त होता है । पं. आशाधर मानते हैं कि सांसारिक सुख धर्म का आनुषंगिक फल है, किन्तु मुख्यफल मोक्ष की प्राप्ति है । इस सन्दर्भ में उनका 'शार्दूलविक्रीडित छन्द में आबद्ध (अनगार धर्मामृत का ) यह आलंकारिक पद्य द्रष्टव्य है धर्माद् दृक्फलमभ्युदेतिकरणैरूद्गीर्यमाणोऽनिशं, यत्प्रीणाति मनोवहन् भवरसो यत्पुंस्यवस्थान्तरम् । स्याज्जन्मज्वर संज्वरव्युपरमोपक्रम्य निस्सीम तत्, तादृक्शर्म सुखाम्बुधिप्लवमयं सेवाफलंत्वस्य तत् ॥ 25 ॥ अर्थात्, जैसे राजा के निकट आनेवाले सेवक को दृष्टिफल और सेवाफल की प्राप्ति होती है, वैसे ही धर्म का सेवन करनेवाले को धर्म से ये दो फल प्राप्त होते हैं । इन्द्रियों द्वारा होनेवाला और दिन- -रात रहनेवाला जो संसार का रस मन को प्रसन्न करता है वह दृष्टिफल है तथा संसार-रूप महाज्वर के विनाश से उत्पन्न होनेवाला असीम अनिर्वचनीय
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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