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जैनविद्या - 22-23 के भट्टारक विद्वानों ने उनके पाण्डित्य की प्रशंसा मुक्तकण्ठ से की है और उन्हें 'नयविश्वचक्षु', 'कलि-कालिदास', 'प्रज्ञापुंज' आदि उपाधियों से सम्बोधित किया है। जैनेतर विद्वान् भी उनकी विद्वत्ता के वशंवद थे।
पं. आशाधर कर्मकाण्ड में निष्णात विद्वान थे, इस बात का संकेत उनके 'जिनयज्ञकल्प' नाम के ग्रन्थ से मिलता है । इस ग्रन्थ में विभिन्न प्रकार की धार्मिक विधियों का वर्णन छह अध्यायों में किया गया है। उदाहरणार्थ - यज्ञ दीक्षाविधि, मण्डप-प्रतिष्ठाविधि, वेदीप्रतिष्ठाविधि, अभिषेक-विधि, विसर्जन-विधि, ध्वजारोहण-विधि, आचार्य-प्रतिष्ठाविधि, सिद्ध प्रतिमा-प्रतिष्ठाविधि, श्रुतदेवता प्रतिष्ठाविधि, यक्षादि प्रतिष्ठाविधि आदि उल्लेखनीय
पं. आशाधर ने अनेक कृतियों की रचना की है। परन्तु मूलत: वे रचनाकार से अधिक टीकाकार थे। उनके लगभग सात टीका-ग्रन्थ हैं - मूलाराधना-टीका, इष्टोपदेश टीका, भूपाल चतुर्विंशति टीका, आराधनासार टीका, अमरकोश टीका, काव्यालंकार टीका और अष्टांगहृदयोद्योतिनी टीका। उन्होंने अपने मूलग्रन्थ भी प्रायः सटीक ही लिखे हैं - 'सागारधर्मामृत सटीक, अनगार धर्मामृत सटीक, सहस्रनाम स्तवन सटीक आदि। उनके प्राप्य टीकाग्रन्थों और मूलग्रन्थों की कुल संख्या बीस है, इसका उल्लेख आचार्य नेमिचन्द्र शास्त्री ने अपनी महत्कृति तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा, खण्ड 4' में किया है। ___पं. आशाधर का 'श्रीमहामृत्युंजय पूजा विधान' नाम का ग्रन्थ भी उपलब्ध है, जिसका संकलन आचार्य विमलसागर मुनिराज ने किया है और इसका भव्य प्रकाशन 'भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत्परिषद्' से हुआ है। इस 'पूजा-विधान' में तीर्थंकर ही महामृत्युंजयस्वरूप हैं।
पण्डितप्रवर आशाधर का प्रमुख सारस्वत अवदान है - अनगारिकों और अगारिकों, अर्थात् श्रमणों और श्रावकों के लिए विहित धर्मों का पुंखानुपुंख विवेचन। इस सन्दर्भ में उनका महाग्रन्थ (कुल पद्य संख्या दो हजार) - धर्मामृत विश्वविश्रुत है। अवश्य ही, इस ग्रन्थ का प्रकारान्तर से कर्मकाण्डीय महत्त्व है। __ भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली से प्रकाशित इन दोनों ग्रन्थों के तृतीय संस्करण के प्रधान सम्पादकीय (लेखक : पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री एवं श्री ज्योतिप्रसाद जैन, प्रथम संस्करण, सन् 1977 ई. से संकलित) से ज्ञात होता है कि यह ग्रन्थ दो भागों में विभक्त है। 'अनगार धर्मामृत' प्रथम भाग का नाम है और द्वितीय भाग का नाम है 'सागारधर्मामृत'। ग्रन्थकार पं. आशाधर ने स्वयमेव मूल श्लोकों के साथ संस्कृत में भव्यकुमुद चन्द्रिका' नाम की टीका और 'ज्ञानदीपिका' नाम की पंजिका लिखी है। 'पंजिका' का लक्षण है -