________________
जैनविद्या - 20-21
87
अनुकम्पा ___ "सर्व प्राणिषु मैत्री अनुकम्पा'126 अर्थात् प्राणीमात्र में मैत्रीभाव अनुकम्पा है। यह सराग सम्यग्दृष्टि का गुण माना गया है। दयाई व्यक्ति का दूसरे की पीड़ा को अपनी ही पीड़ा समझकर कँप जाना अनुकम्पा है । इसके दो भेद हैं - 1. भूतानुकम्पा और 2. व्रती अनुकम्पा।” इस विषय में 'अज्ञेय' का मत है कि अनुकम्पा की भावना रखने से व्यक्ति दूसरों को दुःख देने से बचता है।
दर्द सबको माँजता है
और, जिन्हें वह माँजता है उन्हें यह सीख देता है
कि सबको मुक्त रखें। करुणा
"दीनानुग्रह भावः कारुण्यम्" अर्थात् दीनों पर दयाभाव रखना कारुण्य है । शरीर और मानस दु:खों से पीड़ित दीन प्राणियों पर अनुग्रहरूप भाव कारुण्य है। मोहाभिभूत, कुमति, कुश्रुत
और विभंगज्ञानयुक्त विषय-तृष्णा से जलनेवाले हिताहित में विपरीत प्रवृत्ति करनेवाले, विविध 'दुःखों से पीड़ित दीन, अनाथ, कृपण, बाल-वृद्ध आदि क्लिश्यमान जीवों में करुणा भाव रखना
चाहिए।" माध्यस्थ
"राग-द्वेषपूर्वक पक्षपाताभावो माध्यस्थम' अर्थात् राग-द्वेषपूर्वक पक्षपात न करना माध्यस्थ है। राग-द्वेषपूर्वक किसी एक पक्ष में न पड़ने के भाव को माध्यस्थ या तटस्थ भाव कहते हैं। ग्रहण, धारण, विज्ञान और ऊहापोह से रहित महामोहाभिभूत विपरीत दृष्टि और विरुद्धवृत्तिवाले प्राणियों में माध्यस्थ की भावना रखनी चाहिए। वात्सल्य ___ जिनप्रणीत धर्मामृत से नित्य अनुराग करना वात्सल्य है - "जिन प्रणीत धर्मामृते नित्यानुरागता वात्सल्यम्।'33 जैसे गाय अपने बछड़े से अकृत्रिम स्नेह करती है उसी तरह धार्मिकजन को देखकर स्नेह से ओत-प्रोत हो जाना प्रवचनवात्सल्य है। जो धार्मिकों में स्नेह है, वही तो प्रवचनस्नेह है। वैयावृत्त्य ___ गुणवान् साधुओं पर आये हुए कष्ट-रोग आदि को निर्दोष विधि से हटा देना, उनकी सेवा आदि करना बहु उपकारी वैयावृत्त्य है। बाल, वृद्ध और तपस्वीजनों की वैयावृत्त्य को सातावेदनीय का आस्रव माना गया है।
अहिंसा __अहिंसा” सभी व्रतों में प्रधान है। प्राणों के वियोग करने से प्राणी की हिंसा होती है। प्राण वियोग होने पर आत्मा को ही दुःख होता है अत: हिंसा है, और अधर्म है। धर्म के नाम पर भी हिंसा उचित नहीं है। प्राचीनकाल में धर्म के नाम पर हिंसा होती थी; ऐसी हिंसा का प्रतिपादन करने वालों को भट्ट अकलंकदेव ने अज्ञानी कहा है। प्राणिवध तो पाप का ही साधन