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________________ जैनविद्या - 20-21 44 'संसार - सागर में डूबते हुए अनेक प्राणियों के उद्धार की पुण्य 1115 (उनके ही अनुसार) भावना है ''15 जो प्रथम सूत्र 'सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग : 16 से अन्तिम सूत्र तक चलती है । अत: उन्होंने उन्हीं मानवीय मूल्यों को 'तत्वार्थवार्तिक' में स्थान दिया है जो मानव को मानवता के चरम लक्ष्य मोक्ष तक पहुँचा सकें । तत्त्वार्थवार्तिक में प्रतिपादित मानवीय मूल्य इसप्रकार हैं 86 - मद्य-मांस-मधु का निषेध त्रस-घातकी निवृत्ति के लिए मधु और मांस को सदा के लिये छोड़ देना चाहिए । प्रमाद के नाश करने के लिए हिताहित विवेक को नष्ट करने वाली मोहकारी मदिरा का त्याग करना अत्यावश्यक है। 7 विवेक की रक्षा, अहिंसापालन और क्रूरता से बचाव के लिए मद्य-मांसमधु का निषेध कर स्वपरोपकार करना चाहिए । - परस्परोपग्रह " आचार्य उमास्वामी के अनुसार- 'परस्परोपग्रहो जीवानाम् "8 अर्थात् जीव परस्पर उपकार करते हैं। भट्ट अकलंकदेव ने इस सूत्र को मानवीय मूल्य के रूप में रखा है। उनके अनुसार 'परस्पर शब्द कर्म व्यतिहार अर्थात् क्रिया के आदान-प्रदान को कहता है । स्वामीसेवक, गुरु-शिष्य आदि रूप से व्यवहार परस्परोपग्रह है। स्वामी रुपया देकर तथा सेवक हित प्रतिपादन और अहित प्रतिषेध के द्वारा परस्पर उपकार करते हैं। गुरु उभयलोक का हितकारी मार्ग दिखाकर तथा आचरण कराके और शिष्य गुरु की अनुकूलवृत्ति से परस्पर के उपकार में प्रवृत्त होते हैं।” स्वोपकार और परोपकार को अनुग्रह कहते हैं । पुण्य का संचय स्वोपकार है. और पात्र की सम्यग्ज्ञान आदि की वृद्धि परोपकार है। 20 मैत्री सर्वार्थसिद्धि में पूज्यपाद स्वामी ने "परेषां दुःखानुत्पत्त्यभिलाषी मैत्री "21 अर्थात् दूसरों को दुःख न हो - ऐसी अभिलाषा रखने को मैत्री कहा है। भट्ट अकलंकदेव ने मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदन; हर प्रकार से दूसरे को दुःख न होने देने की अभिलाषा को मैत्री कहा है । 22 इसके लिए निम्न भावना भानी चाहिए - क्षमयामि सर्व जीवान् क्षाम्यामि सर्वजीवेभ्यः, प्रीतिर्ये सर्वसत्त्वैः वैरं मे न केनचित् ॥ ३ अर्थात् मैं सब जीवों के प्रति क्षमाभाव रखता हूँ, सब जीव मुझे क्षमा करें; मेरी सब जीवों से प्रीति है, किसी से वैर नहीं है; इत्यादि प्रकार की मैत्री भावना सब जीवों में करनी चाहिए। प्रमोद मुख की प्रसन्नता, नेत्र का आह्लाद, रोमाञ्च, स्तुति, सद्गुण-कीर्तन आदि के द्वारा प्रकट होने वाली अन्तरंग की भक्ति और राग प्रमोद है । 24 सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्राधिक गुणीजनों की वन्दना, स्तुति, सेवा आदि के द्वारा प्रमोद भावना भानी चाहिए। 25
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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