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जैनविद्या - 20-21
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'पंचवटी' में गुप्तजी के स्वर भी यही थे -
भव में नव वैभव प्राप्त कराने आया। नर की ईश्वरता प्राप्त कराने आया॥
सन्देश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया। इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया। वाल्टर लिपमान ने मानव की बुद्धि, विवेक एवं श्रम द्वारा उत्तम जीवन की खोज को मानववाद कहा।
'मानववाद' का विश्लेषण करते हुए डॉ. धर्मवीर भारती ने लिखा कि - "मानववाद के उदयकाल में ईश्वर जैसी किसी मानवोपरि सत्ता या उसके प्रतिनिधि धर्माचार्यों को नैतिक मूल्यों का अधिनायक न मानकर मनुष्य को ही इन मूल्यों का विधायक मानने की प्रवृत्ति विकसित होने लगी थी।1० इसे मानवीय गौरव का नाम दिया जाने लगा। "मानवीय गौरव का अर्थ है कि मनुष्य को स्वतंत्र, सचेत, दायित्वयुक्त माना जाय, जो अपनी नियति, अपने इतिहास का निर्माता हो सकता है। इसके लिए उसके विवेक और मनोबल को सर्वोपरि और अपराजेय माना जाय।"17 मानवीय गरिमा के प्रति सभी अस्तित्ववादी चिन्तक एवं रचनाकार पूरी तरह सजग हैं। डॉ. भारती अन्तरात्मा की पहचान मनुष्य की संवेदनशीलता से मानते हैं; वे लिखते हैं कि - "अन्तरात्मा मानवीय अन्तर में स्थित कोई दैवी या अति प्राकृतिक शक्ति न होकर वस्तुतः मानवीय गरिमा के प्रति हमारी संवेदनशीलता का ही दूसरा रूप है और मनुष्य के गौरव को प्रतिष्ठित करने और उसकी निरन्तर रक्षा करने के प्रति हमारी जागरूकता ही हमारी जागृत अन्तरात्मा का प्रमाण है।"13
इस अन्तरात्मा की पहचान, उसकी सत्ता का आभास आत्मशक्ति के परिज्ञान से होगा और तभी मानवीय मूल्यों या गुणों की पहचान संभव होगी। 'अज्ञेय' की यह कविता हमें उसी आत्मशक्ति का आभास कराती है जिस आत्मशक्ति के बल पर आत्मज्ञान या आत्मलाभ या मोक्षप्राप्ति का लक्ष्य तत्त्वार्थवार्तिककार को अभिप्रेत है -
शक्ति असीम है, मैं शक्ति का एक अणु हूँ, मैं भी असीम हूँ। एक असीम बूंद - असीम समुद्र को अपने भीतर प्रतिबिम्बित करती है, एक असीम अणु - उस असीम शक्ति को जो उसे प्रेरित करती है
अपने भीतर समा लेना चाहता है। उक्त मानव सम्बन्धी विवेचन में जहाँ लौकिक और भौतिक धरातल पर मनुष्य को खड़ा करने की चेष्टा की गयी है वहीं भट्ट अकलंकदेव की विचारधारा प्राणी (मानव) को भौतिक धरातल से आध्यात्मिक धरातल पर खड़ा करना चाहती है क्योंकि उनके विचारों के पीछे