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________________ जैनविद्या - 20-21 पाश्चात्य विचारक आस्कर बाइल्ड भले ही नैतिक मूल्यानुराग को लेखक की शैली का अक्षम्य आडम्बर माने किन्तु भारतीय और विशेषकर आध्यात्मिक लेखकों के लिए नैतिक मूल्यानुराग छोड़ पाना सरल नहीं है। श्री भट्ट अकलंकदेव की दृष्टि में सारे प्रयत्न सुख के लिए हैं - "सर्वेषां प्राणिनां परिस्पन्दः सुख प्राप्त्यर्थ: किन्तु यह प्रश्न उठता है कि किसके सुख के लिए? मानववादी भी व्यक्तिस्वातंत्र्य की बात करते हैं किन्तु वहाँ भी यही प्रश्न उठता है कि किसका स्वातंत्र्य? तो एक ही उत्तर मिलता है - आत्म-स्वातंत्र्य। 'तत्त्वार्थवार्तिक' में मंगलाचरण की टीका में श्री भट्ट अकलंकदेव स्वयं लिखते हैं कि - ___ "संसारिणः पुरुषस्य सर्वेष्वर्थेषु मोक्षः प्रधानम् प्रधाने च कृतो यत्नः फलवान् भवति तस्मान्तन्मार्गोपदेशः कार्यः तदर्थत्वात्। अर्थात् संसारी आत्मा के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष; इन चार पुरुषार्थों में अन्तिम (मोक्ष) प्रधानभूत परुषार्थ है अत: उसकी प्राप्ति के लिए मोक्षमार्ग का उपदेश करना ही चाहिए। किन्तु यह बिना मनुष्य को आधार बनाये संभव नहीं है क्योंकि मनुष्य पर्याय से ही मोक्ष लाभ होता है - "मनुष्यदेहस्य चरमत्वम्।" मनुष्य की इस शक्ति को जैनदर्शन ही नहीं बल्कि अन्य दर्शन भी स्वीकार करते हैं - 'महाभारत' में व्यासजी लिखते हैं - "गुह्यं ब्रह्म तदिदं वो ब्रमोमि, नहिं मानुषात् श्रेष्ठतम् हि किंचित्।" अर्थात् - मैं तुम्हें ब्रह्म का रहस्य कहता हूँ, मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। ब्रह्मपुराण के अनुसार - जो मनुष्य कर सकता है वह सुरासुर भी नहीं कर सकते। ___ सांख्यवृत्ति के अनुसार सृष्टि के षड्विधभेदों में मनुष्य उत्तम है - "देवादि षड्विधाय स्यात् संसारः कर्म, सुरोऽसुरो नरः प्रेतो नारकस्तिरयर्कस्तता।" आचार्य अकलंकदेव की दृष्टि में, "धर्मार्थ काममोक्षलक्षणानि कार्याणि नृणन्ति नयन्तीति नराः' अर्थात् धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरूप चार पुरुषार्थों का नयन करने वाले 'नर' होते हैं । शक्ति की दृष्टि से "मनुष्य अपने में स्वतः सार्थक और मूल्यवान् है - वह आन्तरिक शक्तियों से सम्पन्न, चेतन स्तर पर अपनी नियति के निर्माण के लिए स्वतः निर्णय लेने वाला प्राणी है।'' श्री सुमित्रानन्दन पंत की दृष्टि में - धर्मनीति औ सदाचार का, मूल्यांकन है जनहित॥ अतः मनुष्य में ही मानवोचित गुणों का विकास किया जाना अपेक्षित है। इसी विचारधारा के परिप्रेक्ष्य में 'मानववाद' उभरकर सामने आया, जो पारलौकिक मूल्यों के स्थान पर इहलौकिक मूल्यों को स्थान देने लगा। पंतजी लोकायतन में घोषित करते हैं कि - मानव दिव्य स्फुलिंग चिरन्तन, वह न देश का नश्वर रजकण। देशकाल से उसे न बन्धन, मानव का परिचय मानवपन॥
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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