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जैनविद्या - 20-21 को ही प्रवेश कराती है। इससे स्पष्ट है कि तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार मिथ्यात्व के स्थितिबंध का कारण भी कषाय ही है। सासादन गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी के उदय से मिथ्यात्व के अभाव में भी इसके तीनों ज्ञान अज्ञान कहे जाते हैं अर्थात् अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से ही उसका ज्ञान मिथ्याज्ञान कहलाता है।
सर्वार्थसिद्धि में ये पंक्तियाँ हैं - 'अनन्तसंसारकारणत्वान्मिथ्यादर्शनमनन्तम् । तदनुबन्धिनोऽनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमायालोभाः।' इसके पश्चात् तत्त्वार्थसूत्र की अन्य टीकाओं में भी यह सर्वत्र उद्धृत है।
इसमें से दूसरी पंक्ति के प्रमुख रूप से दो प्रकार के अर्थ किये गये हैं। उस मिथ्यात्व का अनुगमन करनेवाली अथवा उसका आश्रय पाकर बँधनेवाली क्रोध-मान-माया-मोह अनन्तानुबन्धी कषायें हैं । इस अर्थ में अनन्तानुबन्धी कषाय को मिथ्यात्व की सहचरी, अनुवर्तिनी कहा गया है। ___ दूसरे अर्थ में अनन्त मिथ्यादर्शन को बाँधनेवाली कषायें अनन्तानुबन्धी हैं। तत्त्वार्थवार्तिक में तो स्पष्ट ही कहा है कि वह कषाय मिथ्यादर्शनरूपी फलों को उत्पन्न कर मिथ्यादर्शन का प्रवेश कराती है। इस प्रकार कषाय ही मिथ्यात्व के उदय में मिथ्यात्व के बन्ध का कारण मानी गई है। ___ मिथ्यात्वादि सामान्य तथा कषाय व योग विशेष प्रत्यय हैं । सामान्य प्रत्यय के होने पर बन्ध रूप कार्य हो ही, ऐसा नहीं, किन्तु विशेष प्रत्यय के सद्भाव में कार्य की निष्पत्ति अवश्य होती है। तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध के लिए सम्यग्दर्शन होना अनिवार्य है, परन्तु सम्यग्दर्शन तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध का हेतु नहीं है।
आचार्यों ने बन्ध के दो भेद माने हैं । राजवार्तिक में बन्ध के द्रव्यबन्ध व भावबन्ध दोनों भेदों का निर्देश है।15 पदगल वर्गणाओं का कर्म के रूप परिणत हो आत्मा के साथ एक क्षेत्रावगाह होना द्रव्यबन्ध है। उसके द्वारा क्रोधादि परिणामों के वशीभूत होना भावबन्ध है । तत्त्वार्थसूत्र में आठवें अध्याय के प्रथम सूत्र में मिथ्यात्वादि को बन्ध हेतु कह देने के बाद जो दूसरा सूत्र दिया गया है, वह महत्त्वपूर्ण है। दूसरे सूत्र में 'सकषयात्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः' कहा गया है। इस सूत्र में जो कषाय का पुनर्ग्रहण है, उसके विषय में आचार्य अकलंक कहते हैं बन्धहेतुओं में कषाय का विशेष महत्त्व है, इसीलिए बन्ध के हेतुओं में निर्दिष्ट होकर भी यहाँ पुनर्ग्रहण किया गया है । कषायों की तीव्र, मन्द व मध्य स्थिति से ही स्थिति और अनुभाग होते हैं। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्रकार व राजवार्तिककार दोनों ही कषाय को ही बन्ध का विशेष प्रत्यय कहते हैं । इस सूत्र में सकषायत्वात्' में कषाय का पुनः उल्लेख विशेष प्रतिपत्ति हेतु माना है - विशेषप्रतिपत्त्यर्थम्।
सम्यग्दर्शनादि मोक्ष का कारण है, तो मिथ्यात्व संसार का कारण।” इसीलिए उसे अनन्त संसार का कारण अनन्त कहा है । इस अनन्त संसार के कारण अनन्त मिथ्यात्व का कारण है कर्मबन्ध और कर्मबन्ध का विशेष प्रत्यय है कषाय । तत्त्वार्थवार्तिक के विवेचन का यही निष्कृषार्थ है।