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________________ जैनविद्या - 20-21 अर्थात् सातवें से लेकर दसवें गुणस्थान तक कषाय और योग हेतु हैं। इसके कषायों के उपशम वक्षय अर्थात् अभाव के कारण केवल योग ही बन्ध का हेतु है। चौदहवाँ गुणस्थान अयोगकेवली का होने से योग का भी अभाव है, अतः वहाँ किसी प्रकार का बन्ध नहीं है । बन्ध के समस्त तुओं का अभाव है।' 80 वस्तुतः प्रकृति, प्रदेश, स्थिति व अनुभागरूप बन्ध के चार प्रकारों में अन्तिम दो ही मुख्य हैं । आगम में एक समय के बन्ध को बन्ध ही नहीं कहा गया है। एक समय के बन्ध को दीवार पर फेंकी गई मुट्ठीभर रेत के समान कहा गया है, जो दीवार से बँधती ही नहीं है । सम्बन्ध की स्थिति स्थितिबन्ध के बिना नहीं होती और अनुभाग सुख-दुःख के विपाक में निमित्त है। अत: स्थिति और अनुभाग बन्ध ही प्रमुख हैं और इनका कारण कषाय है । आचार्य अकलंक कहते हैं कि मिथ्यादर्शन आदि के आवेश से आर्द्र आत्मा में चारों ओर से योगविशेष से कर्मयोग्य पुद्गलों का अविभागात्मक बन्ध हो जाता है। योग और कषाय से ही पुद्गलों का कर्मरूप परिणमन होता है। इससे स्पष्ट है कि योग और कषाय ही बन्ध के प्रमुख कारण हैं । ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में जो कषायरहित मात्र योगकृत आस्रव व बन्ध है, उसका कारण वहाँ कषाय का अभाव है ।' कषाय से स्थिति व अनुभाग बंध के नियम में यह अपवाद है। इन गुणस्थानों में बंध का हेतु एकमात्र योग है। अन्यत्र अर्थात् प्रथम से दसवें स्थान तक प्रकृति- प्रदेश बन्ध का हेतु योग तथा स्थिति- अनुभाग बंध का हेतु कषाय है । मिथ्यात्व आदि सोलह प्रकृतियाँ मिथ्यात्व प्रत्यय से बन्ध को प्राप्त होती हैं ।" मिथ्यात्व के उदय के बिना इनका बंध नहीं होता । जब मिथ्यात्व का उदय हो, तो शेष पन्द्रह प्रकृतियाँ बँधे ही, ऐसा नियम नहीं है । अतः मिथ्यात्व का उदय इनके उदय में सामान्य कारण है । कर्म-बन्ध के सामान्य / असामान्य दो प्रकार के कारण कहे गये हैं । सामान्य योग्यता होने पर ही बन्ध के विशेष कारण होने पर बन्ध होगा । मिथ्यात्वादि ऐसे ही सामान्य प्रत्यय हैं । सामान्य प्रत्यय बन्ध के उदय में अपेक्षित होते हैं। मिथ्यात्व गुणस्थान में बँधनेवाली सभी प्रकृतियों के बन्ध का सामान्य कारण मिथ्यात्व है । प्राकृत पंचसंग्रह में मिथ्यात्व की प्रधानता से बन्ध कहा है ।" तथा कषाय की वृद्धि हानि से स्थिति व अनुभाग की वृद्धि हानि तथा योग की वृद्धिहानि से प्रदेशबन्ध की वृद्धि-हानि कही गई है। उत्कृष्ट स्थिति-बन्ध का कारण तीव्र संक्लेश होता है। तीव्र संक्लेश कषाय की तीव्रता से ही होता है। मिथ्यात्व की स्थिति भी अनन्तानुबन्धी कषाय की तीव्रता और मन्दता पर निर्भर है। मिथ्यात्व के उदय में अनन्तानुबन्धी कषाय की तीव्रता में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध होता है । मिथ्यात्व के साथ उदय में रहनेवाली अनन्तानुबन्धी कषाय द्विविध शक्तिसंयुक्त कही गई है । इसी कारण यह सम्यक्त्व और सम्यक् चारित्र दोनों का घात करती है । तत्त्वार्थवार्तिक में कहा गया है कि अनन्त मिथ्यादर्शन को बाँधने के कारण अनन्तानुबन्धी यह कषाय की अन्वर्थ संज्ञा है । यह कषाय मिथ्यादर्शनरूपी फल को सम्पादित कर मिथ्यादर्शन
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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