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जैनविद्या - 20-21
अप्रेल - 1999-2000
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तत्त्वार्थराजवार्तिक और कर्मबन्ध के प्रत्यय
- डॉ. ( श्रीमती) कुसुम पटोरिया
कर्मबन्ध की प्रक्रिया में 'मिथ्यात्व की भूमिका' का प्रश्न कुछ वर्षों से चर्चा का विषय बना हुआ है । यद्यपि मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को बन्ध के हेतु, सामान्य प्रत्यय तथा मूल प्रत्यय कहा गया है, तथापि 'मिथ्यात्व की कर्मबन्ध की भूमिका' चर्चा में है। इसका कारण यह है कि प्रकृति व प्रदेश-बन्ध योग के निमित्त से तथा स्थिति व अनुभाग-बन्ध कषाय के निमित्त से कहे गये हैं। यद्यपि आचार्य अकलंक ने विरत के भी प्रमाद संभव होने के कारण तथा अविरति और कषाय में कार्य-कारण भाव होने से उन्हें पृथक् मानने का समर्थन किया है, तथापि समयसार और धवला टीका में प्रमाद का संज्वलन कषाय की तीव्रोदय की अवस्था होने के कारण कषाय में अन्तर्भाव किया गया है। अविरति भी कषाय में अन्तर्भूत हो सकती है। अतः मिथ्यात्व ही बन्ध-प्रत्यय की दृष्टि से विचारणीय बचता है।
आचार्य अकलंक ने राजवार्तिक में इस विषय का जो विवेचन किया है, उसका विमर्श इस लेख का प्रतिपाद्य है । यहाँ गुणस्थानों के अनुसार मिथ्यात्वादि हेतुओं का विचार करते हुए कहा गया है कि प्रथम गुणस्थान में अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीव के मिथ्यात्व आदि प्रकृतियों के बंध में पाँचों मिलकर हेतु हैं। दूसरे, तीसरे व चौथे गुणस्थानों में मिथ्यात्व को छोड़कर शेष चार हेतु हैं, क्योंकि वहाँ मिथ्यात्व का अभाव है। पाँचवें गुणस्थान में भी ये चारों ही हेतु हैं । प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थान में प्रमाद, कषाय और योग ये तीन हेतु हैं । अप्रमत्तसंयत से सूक्ष्मसाम्पराय