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जैनविद्या - 20-21
आस्रव के कारण दुःखशोकतापाकन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थानि असद्वेद्यस्य।
पीडालक्षणः परिणामो दुःखम् ॥1॥विरोधिद्रव्योपनिपाताभिलषितवियोगाऽनिष्टनिष्ठर श्रवणादिबाह्यसाधनापेक्षात् असवेद्योदयादुत्पद्यमानः पीडालक्षणः परिणामो दुःखमित्याख्यायते।
अनुग्राहकसम्बन्धविच्छेदे वैक्लव्यविशेषः शोकः ॥2॥ अनुग्राहकस्य बान्धवादेः संबन्धविच्छेदे तद्गताशयस्य चिन्ताखेदलक्षणः परिणामो वैक्लव्यविशेषो मोहकर्मविशेषशोकोदयापेक्षः शोक इत्युच्यते।
परिवादादिनिमित्तादाविलान्तःकरणस्य तीव्रानुशयस्तापः॥3॥ परिवादः परिभवः , परुषवचनश्रवणादिनिमित्तापेक्षया कलुषान्तःकरणस्य तीव्रानुशयः परिणामः ताप इत्यभिधीयते।
परितापजाश्रुपातप्रचुरविलापाद्यभिव्यक्तं क्रन्दनमाक्रन्दनम् ॥4॥ परितापनिमित्तेना-श्रुपातप्रचुरविलापेनाङ्गविकारादिना चाभिव्यक्तं क्रन्दनमाक्रन्दनं प्रत्येतव्यम्।
आयुरिन्द्रियवलप्राणवियोगकरणं वधः॥5॥ भावधारणकारणस्यायुषः रूपादिग्रहणनिमित्तानाम् इन्द्रियाणां कायादिवर्गणालम्बनबलस्योच्छ्वासनिःश्वासलक्षणस्य च प्राणस्य परस्परतो वियोगकरणं वध इत्यवधार्यते।
संक्लेशप्रवणं स्वपरानुग्रहाभिलाषविषयमनुकम्पाप्रायं परिवदेवनम्॥6॥ संक्लेशपरिणामालम्बनं स्वपरानुग्रहाभिलाषविषयम् अनुकम्पाप्रचुरं परिदेवनमिति परिभाष्यते।
___ तत्त्वार्थराजवार्तिक, 6.11 . आत्मस्थ, परस्थ और उभय में होनेवाले दुःख, शोक (आतप, क्रन्दन, वध, परिदेवन) आदि असाता वेदनीय के आस्रव के कारण हैं।
विरोधी पदार्थों का मिलना, इष्ट का वियोग, अनिष्ट-संयोग और निष्ठर वचन आदि बाह्य कारणों की अपेक्षा से तथा असाता वेदनीय के उदय से होनेवाला पीड़ा लक्षण परिणाम दुःख है। अनुग्रह करनेवाले बन्धु आदि से विच्छेद हो जाने पर उसका बार-बार विचार करके जो चिन्ता, खेद और विकलता आदि मोहकर्म विशेष शोक के उदय से होते हैं वे शोक हैं। परिभवकारी कठोर वचन के सुनने आदि से कलुष चित्तवाले व्यक्ति के भीतर ही भीतर तीव्र जलन या अनुशय परिणाम होते हैं वे ताप हैं। परिताप के कारण अश्रुपात, अंगविकार - माथा फोड़ना, छाती कूटना आदि पूर्वक जो रोना है वह आक्रन्दन है। आयु, इन्द्रिय, बल और प्राण आदि का विघात करना वध है। अतिसंक्लेशपूर्वक ऐसा रोना-पीटना जिसे सुनकर स्वयं अपने तथा दूसरे को दया आ जाय परिदेवन है।
अनु. - प्रो. महेन्द्रकुमार जैन, न्यायाचार्य