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________________ "तत्वार्थवार्तिक के सभी अध्यायों की विशद टीका अकलंकदेव ने की है और उसमें जैन सिद्धान्तों के विवेचन के साथ ही अन्य दर्शनों की समीक्षा की है। इसके अतिरिक्त स्फोटवाद, क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी तथा वैनिकवादियों की समीक्षा की है।" "तत्वार्थवार्तिक में अकलंकदेव ने जैन सिद्धान्त और आगम का विशद वर्णन करते हुए मुक्ति हेतु अनेकान्तमयी, आत्माश्रित अध्यात्म पक्ष को ही उपादेय स्वीकार किया है।" "स्वामी समन्तभद्र ने देवागम स्तोत्र (आप्त मीमांसा) में अनेकान्तवाद की स्थापना करते हुए सर्वज्ञ की सिद्धि की थी। अकलंकदेव ने देवागम स्तोत्र पर 800 श्लोक प्रमाण विवृत्ति (भाष्य) लिखी जो अष्टशती कहलाती है।" "उनके मौलिक ग्रन्थों में 'लघीयस्त्रय' का नाम सर्वप्रथम है।" इसके माध्यम से 'अकलंकदेव प्रबुद्ध पाठकों को प्रमाण, नय और प्रवचन का सामान्य परिचय देना चाहते थे।" 'अकलंकदेव ने नयप्रवेश (लघीयस्त्रय) में नय के साथ दुर्नय या नयाभास के लक्षण भी उपन्यस्त किये हैं। उनकी दृष्टि में ज्ञाता का अभिप्राय ही नय है । अनेकान्त दृष्टि के क्रियान्वयन के लिए उन्होंने कतिपय सामान्य नियम बनाये थे जिन्हें 'नय' नाम से अभिहित किया था। कोई भी दृष्टि अपने प्रतिपक्षी की दृष्टि का निराकरण नहीं कर सकेगी। भले ही, एक अभेददृष्टि की मुख्यता होने पर दूसरी भेददृष्टि गौण हो जाये। यही सापेक्षता नय का मूलतत्व है। सापेक्षता के अभाव में नयदृष्टि दुर्नय बन जाती है। सापेक्ष दृष्टि अभेददृष्टि है और निरपेक्षदृष्टि भेददृष्टि । इन्हें ही द्रव्यनय और पर्यायनय नाम से व्यवहृत किया जा सकता है। द्रव्यार्थिक नय अभेदग्राही है तो पर्यायार्थिक नय भेदग्राही। किसी एक धर्म को मुख्य और उससे इतर धर्मों को गौणरूप से प्रस्तुत करनेवाले ज्ञाता का अभिप्राय ही नय है । जब वही अभिप्राय इतर धर्मों को अनेकान्त दृष्टि से गौण करने की अपेक्षा एकान्तदृष्टि से उनका निराकरण या निरसन करने लगता है तब वह दुर्नय हो जाता है।' ___ "अकलंकदेव की रचनाओं में 'न्यायविनिश्चय' का महत्त्वपूर्ण स्थान है। सिद्धसेन के न्यायावतार के बाद जैन साहित्य में न्यायविनिश्चय ही एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है जिसके आधार पर उत्तरकालीन जैन न्याय के साहित्य का सृजन हुआ। अकलंकदेव ने न्यायविनिश्य पर पद्यगद्यात्मक वृत्ति भी लिखी।" "एकान्त पक्ष के विरुद्ध जितने भी प्रमाण हो सकते थे, उनका संग्रह इस ग्रन्थ (प्रमाण संग्रह) में किया गया है। इस कारण इसकी भाषा और भाव अति कठिन है । यह गद्य-पद्यात्मक है। इसे अकलंकदेव के अन्य ग्रन्थों का परिशिष्ट भी कहा जा सकता है।" _ "अकलंक स्तोत्र में 16 छन्द हैं । इसमें वीतराग परमात्मा को निष्कलंक सिद्धकर उनका स्तवन किया है।" "अकलंकदेव का साहित्य तर्कप्रधान और विचारप्रधान होकर दार्शनिक समीक्षा से ओतप्रोत है। जो भी लिखा गहन मनन, चिन्तन और अध्ययन के बाद लिखा। वे शुष्क दार्शनिक न (viii)
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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