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"अकलंकदेव के समय के सन्दर्भ में न केवल भारतीय विद्वानों अपितु पाश्चात्य विद्वानों ने भी पर्याप्त गवेषणा की है। विदेशी विद्वानों में डॉ. पीटर्सन, डॉ. लुइस राईस, डॉ. एम. विन्टरनित्ज, डॉ. ए. वी. कीथ, डॉ. एफ. डब्ल्यू थामस के नाम उल्लेखनीय हैं।"
"अकलंकदेव का कर्तृत्व अति महान, दुरूह एवं गहन-गंभीर है। इनके द्वारा रचित - 1. तत्वार्थराजवार्तिक भाष्य, 2. अष्टशती, 3. लघीयस्त्रय संविवृत्ति, 4. न्यायविनिश्चय सवृत्ति, 5. सिद्धिविनिश्चय, 6. प्रमाण संग्रह स्वोपज्ञ।"
"आचार्य अकलंकदेव की कृतियों में तत्वार्थवार्तिक (अपरनाम तत्वार्थवार्तिक व्याख्यालंकार, राजवार्तिक या तत्वार्थ राजवार्तिक), अष्टशती, लघीयस्त्रय (स्ववृत्ति सहित), न्याय विनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय (सवृत्ति) प्रमाण संग्रह उपलब्ध हैं। इनके अतिरिक्त स्वरूप-संबोधन, अकलंक स्तोत्र, अकलंक प्रतिष्ठा पाठ, अकलंक प्रायश्चित्त उपलब्ध हैं किन्तु ये विवादग्रस्त कृतियाँ हैं।"
"वर्तमान शती में अकलंक की प्रायः सभी कृतियों का अधिकारी विद्वानों द्वारा कुशलसम्पादन और प्रकाशन हो चुका है। इनकी कृतियाँ इनकी अद्वितीय प्रतिभा, अगाधविद्वत्ता, प्रौढ़ लेखनी, गूढ़ अभिसंधि, अपूर्व तार्किकता एवं वाग्मिता, जैन दर्शन की प्रभावना की उत्कट अभिलाषा, उदात्त कारुण्य भाव, अनेकान्त दर्शन पर उनके पूर्ण अधिकार, जैनेतर दार्शनिक साहित्य के गंभीर आलोडन और जैन सिद्धान्त, संस्कृत भाषा एवं व्याकरण में विचक्षण पाण्डित्य की परिचायक हैं।"
" 'तत्वार्थवार्तिक' तत्वार्थसूत्र पर अकलंकदेव द्वारा अतिगहन, प्रखर दार्शनिकता और प्रौढ़ शैली में लिखी गई कृति है। इसे 'तत्वार्थराजवार्तिक' अथवा 'राजवार्तिक' के नाम से भी जाना जाता है। अकलंकदेव द्वारा तत्वार्थवार्तिक में दिये गये वार्तिक प्रायः सरल हैं परन्तु उनका व्याख्यान कठिन है।"
"इस ग्रन्थ में भट्ट अकलंकदेव के दार्शनिक, सैद्धान्तिक और वैयाकरण तीन रूप उपलब्ध होते हैं।"
." 'तत्वार्थवार्तिक' में न्याय-वैशेषिक, बौद्ध, सांख्य, मीमांसा तथा चार्वाक मतों की समीक्षा प्राप्त होती है। अकलंकदेव का उद्देश्य इन दर्शनों की समीक्षा के साथ-साथ इनके प्रहारों से जैन तत्वज्ञान की रक्षा करना भी रहा है। इसमें वे पर्याप्त सफल भी हुए हैं। उन्होंने जैनन्याय की ऐसी शैली को जन्म दिया जिसके प्रति बहुमान रखने के कारण परवर्ती जैन ग्रन्थकार इसको 'अकलंक न्याय' के नाम से अभिहित करते हैं।"
"अकलंकदेव जैन सिद्धान्त एवं आगम के मर्मज्ञ विद्वान होने के साथ ही गूढ़ दार्शनिक और तार्किक थे। तत्वार्थवार्तिक में सर्वत्र अकलंकदेव की दार्शनिकता एवं विशदज्ञान का दर्शन होता है।"
"तत्वार्थवार्तिक की दूसरी विशेषता जैन सिद्धान्त के प्राण अनेकान्तवाद की व्यापकरूप से स्थापना करना है। अकलंकदेव ने न केवल दार्शनिक मन्तव्यों अपितु आगमिक रहस्यों में भी यथास्थान अनेकान्तवाद की चर्चा कर उसे प्रतिष्ठित किया।"
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