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________________ सम्पादकीय "श्रीमद्भट्टाकलंकदेव स्वामी का व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व भारतीय वाङ्मय के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में उल्लेखनीय है, उन्होंने जैनशासन तथा जैनन्याय के क्षेत्र में मौलिक उपलब्धियाँ प्राप्त की तथा दुरूह और प्रामाणिक ग्रंथों की रचना कर भगवती-भारती के भण्डार को समृद्ध और सम्पन्न किया है।" "श्री अकलंकदेव का प्रामाणिक विशद जीवन-परिचय उनके ग्रंथों में कहीं नहीं मिलता।" "जैन परम्परा में अकलंक नाम के लगभग दो दर्जन आचार्य, विद्वान्, मुनि हुए हैं जिनका परिचय-विवरण डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने अपने जैन ज्योति ऐतिहासिक व्यक्तिकोश - प्रथम खण्ड में दिया है। उनमें क्रमांक प्रथम पर उल्लिखित अकलंकदेव 7वीं शती ईस्वी को छोड़कर शेष अकलंक 11वीं शती के उपरान्त के विद्वान हैं।" __ "श्री अकलंकदेव के व्यक्तित्व एवं जीवन-परिचय के कोई स्पष्ट सुनिश्चित साधन तो हैं नहीं, पर कुछ शिलालेखों तथा कुछ ग्रंथ-प्रशस्तियों के आधार पर उनका समय सन् 720 से 780 ई. तक सुनिश्चित होता है।" "अकलंकदेव जैन, बौद्ध और अन्य दर्शनों के निष्णात विद्वान थे। उन्होंने विभिन्न स्थानों पर जैनधर्म के अनेकान्तवाद अहिंसा आदि सिद्धान्तों की ध्वजा फहराई और अपनी उदारतासदाशयता का परिचय दिया।" "उन्होंने दिग्विजयी शास्त्रार्थी और प्रखर तार्किक आचार्य समन्तभद्र (ईसा की द्वितीय शती) की शास्त्रार्थ-परम्परा को ततोऽधिक समृद्ध किया था। वे जैनन्याय के समानान्तर बौद्धन्याय के भी पारगामी विद्वान थे।" "उन्होंने बौद्ध दर्शन का गहन अध्ययन किया था। साथ ही अन्य भारतीय दर्शनों का उन्हें प्रगाढ़ ज्ञान था, वे पूर्ववर्ती जैनाचार्यों के साहित्य से भलीभाँति परिचित थे।" "अकलंकदेव दर्शनशास्त्र के गूढ अध्येता थे। उन्होंने षट्दर्शन का गंभीर अध्ययन-चिन्तन कर तर्क और युक्ति से जैन-दर्शन की श्रेष्ठता, समीचीनता और आत्मकल्याण हेतु उसकी उपादेयता सशक्तरूप से सिद्ध की। यद्यपि वे मूलतः तार्किक-दार्शनिक थे फिर भी उन्हें जैन सिद्धान्त, न्याय और आगम पर पूर्ण अधिकार था। गहन विषयों को सहज-सरल करने हेतु उन्होंने व्यंगात्मक शैली भी अपनायी। उनकी भाषा छन्द, अलंकार, व्याकरण, शब्द-सामर्थ्य आदि अद्भुत थी। वे वार्तिककार के साथ ही सफल व्याख्याकार-भाष्यकार भी थे।" "अकलंकदेव व्याकरण शास्त्र के महान् विद्वान् थे। पाणिनीय व्याकरण तथा जैनेन्द्र व्याकरण का उन्होंने भली-भाँति पारायण किया था। व्युत्पत्ति और कोश-ग्रन्थों का उनका अच्छा अध्ययन था। तत्वार्थवार्तिक में स्थान-स्थान पर सूत्रों एवं उसमें आगत शब्दों का जब वे व्याकरण की दृष्टि से औचित्य सिद्ध करते हैं तब ऐसा लगता है जैसे वे शब्दशास्त्र लिख रहे हों।" (vi)
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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