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प्रकाशकीय
'जैनविद्या' शोध पत्रिका का 'अकलंक विशेषांक' पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हर्ष है।
अकलंकदेव जैनधर्म के प्रखर तार्किक व दार्शनिक आचार्य थे। अकलंकदेव ने आठवीं सदी (720-780 ई.) के अन्त में तत्कालीन सभी दर्शनों के दार्शनिकों/मतावलम्बियों से शास्त्रार्थ, वाद-विवाद व समीक्षा कर जैनदर्शन के सिद्धान्तों की प्रतिष्ठापना की। .. अकलंकदेव ने आचार्य समन्तभद्र की कृति 'देवागम स्तोत्र' पर 'अष्टशती' तथा आचार्य उमास्वामी की कृति 'तत्वार्थसूत्र' पर 'तत्वार्थवार्तिक' भाष्य लिखे। लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, प्रमाण संग्रह, सिद्धिविनिश्चय उनके मौलिक ग्रन्थ हैं । इनकी रचना कर उन्होंने जैन-न्याय का भव्य प्रासाद निर्मित किया।
जैन न्याय-जगत में अकलंक अपनी प्रमाण-मीमांसा के लिए विशेष प्रसिद्ध हैं। परवर्ती आचार्यों ने अपनी ग्रन्थ-प्रशस्तियों में अकलंकदेव का सम्मानसहित स्मरण किया है, अनेक शिलालेख उनकी विरुदावलि से विभूषित हैं।
जिन विद्वानों ने अपनी रचनाओं के द्वारा इस अंक के प्रकाशन में सहयोग प्रदान किया उन सभी के प्रति आभारी हैं।
पत्रिका के सम्पादक, सम्पादक मण्डल के सदस्यगण, सहयोगी सम्पादक सभी धन्यवादार्ह
हैं
प्रकाशचन्द्र जैन
नरेशकुमार सेठी
अध्यक्ष
मंत्री
प्रबन्धकारिणी कमेटी, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी