SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होकर विनोदी और परिहास-कुशल थे। उन्होंने बौद्धदर्शन का खण्डन तो किया किन्तु उनके मन में विद्वेष नहीं रहा।" "आचार्य अकलंकदेव ने वस्तु सर्वथा सत् ही है अथवा असत् ही है, नित्य ही है अथवा अनित्य ही है - इस प्रकार सर्वथा एकान्त के निराकरण करने को अनेकान्त कहा है। आचार्य अकलंकदेव ने लिखा है कि जीव, अजीव और आस्रव आदि के भेदाभेद का अनेकान्त-दृष्टि से विचार करना चाहिए।" "आचार्य अकलंकदेव ने अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठापना में महनीय योगदान दिया।" "अकलंकदेव ने ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान से अनेकान्तात्मक स्वरूप को प्रतिपादित कर समन्तभद्राचार्य द्वारा व्याख्यायित सिद्धान्तों को परिपूर्णता प्रदान की है।" "अकलंकदेव ने आत्मा और ज्ञान के बीच कर्ता और करण के भेद-अभेद की और अन्त में ज्ञान से आत्मा को भिन्न-अभिन्न सिद्ध कर घोषित किया कि अखण्ड दृष्टि से आत्मा और ज्ञान में कोई भेद नहीं है।" "भट्ट अकलंकदेव मानव को उसे पूरा मानवीय बनाकर सिद्धत्व प्राप्त कराना चाहते हैं जो उनके बताये मार्ग पर चलने से अवश्य ही प्राप्त होगा।" "पुण्य तथा पाप का विश्लेषण करते हुए अकलंकदेव कहते हैं - जो आत्मा को प्रसन्न करे अथवा जिसके द्वारा आत्मा सुख-साता का अनुभव करे, वह सातावेदनीय आदि पुण्य हैं । उसके विपरीत जो आत्मा में शुभ परिणाम न होने दे, जिसके कारण आत्मा को दु:ख का अनुभव हो वह असातावेदनीय आदि पाप हैं।" ___ "श्री भट्ट अकलंकदेव ने 'तत्वार्थवार्तिक' में विभिन्न प्रसंगों में अनेक मानवीय मूल्यों का उल्लेख किया है जिन्हें जीवन में स्थान देने से व्यक्ति में गुणात्मक विकास होता है, यथा - दृढ़ मित्रता, दयालुता, स्वकार्यपटुता, स्वधर्मदर्शित्व, पाण्डित्य, निर्वैर वीतरागता, शत्रु के भी दोषों पर दृष्टि न देना, निन्दा न करना, श्रेयोमार्गरुचि, चैत्य-गुरु-शास्त्र पूजा, प्रकृति-भद्रता, सरल व्यवहार, अल्पारम्भ, अल्पपरिग्रह, दुष्टकार्यों से निवृत्ति, स्वागत-तत्परता, कम बोलना, ईर्ष्यारहित परिणाम, सद्धर्म श्रवण, तप की भावना, पात्रदान, अप्रमाद, निश्छलचारित्र, परप्रशंसा, गुणीपुरुषों के प्रति विनयपूर्वक नम्रवृत्ति, पर का तिरस्कार न करना, अनौद्धत्य, असूया, उपहास-बदनामी आदि न करना, साधर्मी व्यक्तियों का सम्मान आदि।" "जीवहिंसा, चोरी, मैथुनादि अशुभ काययोग हैं। असत्य वचन, कठोर भाषण आदि अशुभवचनयोग हैं और किसी को मारने का विचार करना, ईर्ष्या-असूया आदि के भाव अशुभ मनोयोग हैं।" "अनन्त विकल्पवाले अशुभ योग के विपरीत शुभयोग हैं । अहिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्यादि शुभ काययोग हैं, सत्य-हित-मित-प्रियवचन शुभवचनयोग है; अहंत आदि की भक्ति, तप में रुचि, शास्त्रविनय आदि शुभमनोयोग हैं।" (ix)
SR No.524767
Book TitleJain Vidya 20 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1999
Total Pages124
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy